श्री रामकृष्ण और श्रीमाँ -संस्करण 2 | Shri Ramkrishna Aur Shrimaa : Sanskran 2

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Shri Ramkrishna Aur Shrimaa : Sanskran 2 by स्वामी अपूर्वानंद - Swami Apoorvanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रोरामकृप्ण ११ ज्योकिमेय परम पुरुष को गर्भ में घारण करने के बाद से ही चन्द्रा के शरीर की कान्ति पर सबकी दृष्टि आकपित हुई । उनकी समवयस्क सहेलियाँ आपस में कहते लगी - भ्रौढावस्था में यह सौन्दर्य ! देखी, ब्राह्मणी अब की वार जीवित रहेगी या नही ।” कन्द्रादेवी के गर्भ के दिन ज्यों-ज्यों बीतने लगे, त््यों-त्यों उनके अलौकिक दक्शतादि में भी वृद्धि हुई। एक दिन एक हंसारूढ देवमूर्ति को उन्होने देखा, सूयं के भरकर ताप में उन देवतान करुणामय मुख रनितमायूत दीख रहा था । देखते ही चन्द्रादेनी का मातृ -हृदय स्नेह से भर गया । उसं देवमूतिसे वे ्रमपूवेक बोली--“ भरे बेटा, हंसारुढ देव ! घूप से तेरा चेहरा तो एकदम भूष गथा है । मेरे धरम कु पन्वा भात (जल मे रसा हमा वाती भात) रखा है, वही थोड़ा - सा खाकर कुछ ठण्डा हो के 177 इस स्मेह-सम्भाषण के बाद वह देव-मूर्ति मृदु हास्य करती हुई अन्तर्घात हो ग्यी। च॒न्द्रा को इस श्रकार के दर्मन अनायास होते थे । क्षुदिरामजी सविस्मय अपनी सहयमिणी के मुख से ये सब बाते सुनते और मृग्ध हो जाते। पुलकित हृदय से वे उस शुभ दिन की भास्वर ज्योति की अरुणिमा की प्रतीक्षा करने लगे। बगला फाल्युन की ६ तारीख, १७ फरवरी १८३६ ई. को बुघवार था। आधी घडी रात शेंप थी। चन्द्रमणि को प्रसव वेदना हई और पडोसिनी घनी की सहायता से उन्होने ढेकीौ-धर (घान कूटने का स्थान) में आश्रय छियां । थोडी देर बाद एक पुत्र का जन्म हुआ | घनी ने असूता की समयोचित परिचर्या करने के बाद देखा कि नवजात शिशु बद्इय है | अत्यन्त व्यस्ततापूर्वक खोज करते हुए शिशु को उसने धान उद्ालने के




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