पद संग्रह भाग २ | Pad Sangrah Bhaag 2

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Pad Sangrah Bhaag 2 by वामन दाजी ओक - Vaman Daji Ok

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योगविद्या, गै, . «सि केली. ल चि. 3७ . करिती कोकिळा, पज | म्ह्णे - शगी झालासे स्थीर । नित ..॥< समाधि सवेग सार ॥ उर्ठिंन ॥ ९६ ॥' पद १६ वै सब घट देखो माणिक मौला । कैसे न कटू मै काला धवला । पंचरंगसे न्यारा होई । लेना एक और देना दो ॥ ध्बपद. ॥ निगुण ब्रह्म भुवनसे न्यारा । पोथी पुस्तक भये अपारा । कोरा कागद पढकर जाय । लेना एक और० ॥ १ ॥ अल्लुख पुरुष मै देखा दृष्टि | कर भाउन समार मुध | छाटामे कळु न होय । लेना एक और० ॥ २॥ खलखदिया त्रिनिका । तिरते तिरते यम न थका । इस पार पावे न कोयी । लेना एक और० ॥ ३:॥ नि्गुन दाता कर्ता हर्ता । सब ज़ुग बनमो आपहिता । सदा सर्वंदां अचल होई । लेना एक और०' ॥ ४ ॥ निग्रुन सागर आथक पसारा । वाको तरग सकळ संसारा । उद्धिज प्रलय वातो होय | लेना एक और० ॥ ९ ॥ सप्तहि सागरशायी कता । धरती जो कागद लिखो पंडिता । एक अक्षर पडेन कोय । लेना एक और० ॥ ६ ॥ कहे ज्ञानदेव मनमो घरियो । सप्तहि सागर अगो धरियो । पिंडमे आवे जावे कोय । लेना एक और० ॥ ७ ॥ ३. इयामसुंदरकृत पदं पद १७ वै. मन माझें र[मपदीं जडलें | ध्रुवपद. ॥| माशी मधासिं ढुब्धुनि राहे । या न्याये गमलें ॥ मन० ॥ १ | कमठळिणीशीं श्रमर जैसे । सुगंधा भुलले ॥ मन० ॥ २ ॥ इयामसुंदर जिवलग म्हणे । रामपदीं भन रमले ॥ मन० ॥ ३ ॥ १. शुभ्र, पांढरा. २. निराळा, अलग. २ अ० प० भाू० दु




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