दहकते अंगारे | Dahkate Angaare

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Dahkate Angaare by नरोत्तम प्रसाद - Narottam Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्श में कहती हूँ कि अब ये दिन नहीं रहे जब लड़कियों को जन्म लेते ही गला घोट कर मार डाला जाता था । सच तो यह है. कि लड़कियाँ किसी तरइ भी लड़कों से कम नहीं होतीं । मेरी मिनी ऐसी ही लड़की है । क्यों मिनी मैं ठीक कह रही हूँ न हाँ मा ठीक कहती हो तुम मिनी अपनी मा का समथंन करते हुए कहती मे तो रोज ही कालेज में देखा करती हूँ। सिवाय लड़कियों की ओर घूरने के इन लड़कों को आर कुछ नहीं आता ? मिनी अपनी मा के साँचे में ही टली थी । अपनी मा की तरइ उसने भी रवतंत्र व्यक्तित्व पाया था । लड़कों से उसकी कोई दुश्मनी नहीं थी लेकिन उनका इस तरह धघूर-घुरकर देखना उसे बुरा लगता था । कालेज के लड़के जब सामने आते थे तो उसे ऐसा मालूम होता था मानो सबके सब मिलकर एक स्वर से कह्द रहे हों-- तुम क्या समकती हो दम लड़के हैं--लड़के मिनी को यही जहर लगता था । एक तो लड़कियों की संख्या वेसे ही काकेज में कम थी तिस पर यह हाल । मानो उनकी लोलुप दृष्टि का पात्र बनने के लिंए ही मिनी मे कालेज में पढ़ना शुरू किया हो । मिनी की रंग-बिरंगी छतरी और उसकी साड़ियों ने लड़कों को और भी उकसा दिया था । वे समभते थे कि उनके हृदय को शुदगुदानें के लिए ही मिनी रंगीन तितली बनकर कालेज आती है। पर बात असल में दूसरी थी । केबल फैशन और दिखावे के लिए ही बह छतरी अपने साथ रखती हो ऐसा नहीं इसका एक कारण और भी था । जिस प्रकार कतिपय व्यक्ति कुत्तों आदि के डर से सदा अपने हाथ में छड़ी रखते




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