अग्निहोत्र | Agnihotra

Agnihotra by देवराज - Devraj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अग्निहोत्र श् प्रश्न उठता है कि ब्रह्म ने मृत्यु को सब प्रज्ाएं देवी परन्तु ब्रह्मचारी नहीं दिया । मृत्यु ने कहा इपमें भी मेरा हिस्सा होना चाहिये | हम न कहा अच्छा ब्रह्मचारो जिस रात समिधाहरण त करे उस रत तेरा (मृत्यु का। इसपर अधिकार है । इस कारण जिस रत ज्रह्मचारी समिधाहरण नहीं करता उस रात बह श्रपनी झायु का थोड़ा सा भाग खो देता है। इस कारण ब्रह्मचारी का क्तस्य हे कि समिधाहरण करें कि कही झायु कम न हो जाय | दर कि जी ब्रह्मचय व्रत की धारण करता है वह दीघ सत्र का अरम्भ करता है । अ्रह्मचयं त्रत की दीक्षा के समय जिस समिध का आधान करता है वह इसकी प्रथम समिधा है र स्नातक होने के समय जिस ममिध का आधान करता हें वह इसकी अन्तिम समिधा हे बीच की रुब ससिधायें त्रह्मचय ब्रत रूपी दीचसत्र को हूँ । ब्रह्म दे मृत्यय प्रजा प्रायच्छत्‌ तत्मे अ्ह्मचारिणुमेत् न प्रापच्छत्‌ । सोभ्घ्गीदू तु महामप्येतश्मिनू भाग इति । यामेव रात्रि सपरिध॑ नाहराता इति। तस्मादू या रात्रि त्रहमचारी समिध नाहरात आयुष एवं तामत्रदाय बसति तस्पाद॒ घ्रह्चचारो समिधमाहरेन्न दायुषोध्वदाय श् थक वसानोति ॥ १ ॥ दीघंसत्रं वा एप उपेतिं यो ब्रह्म चयसुपैति स॒यापमुपयन्त्समिधमादधघाति सा अआयणीया यां ख्रास्यन्त्मोदयनीया झय या. झन्तरेण सठ्या एवास्य ता ॥ ९ ॥




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