महादेव पारवती ऋ वेळी | Mahadev Parvati Ri Veli
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.07 MB
कुल पष्ठ :
436
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)-ड.
पर, चू कि इन सभी रघनाप्रों को लेखकों ने 'वेलि” नाम से झभिहित
किया है इसलिए दूसरा उपाय धिपयवस्तुगत साम्य दुढने का ही है।
यह माना हुम्ना सिद्धांत है कि झ्घिकाश भारतीय भापायों की रचनायें
मूल रूप में सस्कृत साहित्य की विभिन्न बिधाश्ो से प्रभावित रही हैं ।
सस्कृत्त में लता, लतिका, वल्लरी, बल्पलता, मजरी, लहरी श्रादि नामों
वाली रघनाग्रों की परम्परा रही है । यही परम्परा देशी भापाप्रो में भी
श्राई जिसके फलस्वरूप हिंदी, राजस्थानी झादि भमापाओओ में भी इन नामों
से रचनायें हुई । वल्लरी, लता, लतिका, वेलि धर वेल--ये सब एक
ही शब्द के पर्याय समझे जाने चाहिए । ज्यों ज्यो देशी भापाश्रो का प्रभाव
बढ़ता गया सस्कृत शब्दों के स्थान पर देशी शब्दों का प्रयोग भी बढ़ता
गया । इसलिए लता? श्रौर 'वल्लरी” के स्थान पर धीरे घीरे 'वेलि” श्ौर
फिर 'वेल' का प्रयोग शुरू हुआ । 'विलि', 'लता' या 'घल्लरो” नामक
रचनाश्रो के विश्लेपण से एक तथ्य सामने घ्राता है कि ये सभी मूल रूप
मे यशोगान सबधी रचनायें हैं । भ्ाराध्यदेव, श्राप्रयदाता, विशिष्ट
सुचरिश्र व्यवित श्रथवा कल्याणकारी विषय--इनमें से चाहे किसी को भी
लदप कर वेलि रचना की गई हो उसकी झन्तभुत मनसा उस देव, व्यक्ति
भ्रथघा विषय का यश-वरन करने की ही होगी । कही भी यह नहीं देखा
गया कि किप्ती की निंदा प्रथवा कोरे तथ्यवरन को वेलि का विषय घनाया
गया हो । इस तथ्य से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वेलि रचनायें
प्रधानत यशोगान के उद्देश्य से लिखी जाती थी | पर, इनका नाम चेलि
ही क्यों रखा गया यह भी विचारणीय है । बेल मे जैसे एक बीज प्रस्पुटित
ड्ोकर शतश पल्लघित्त श्रौर पुष्पित होता हुमा, चारों दिशाश्रो में छा
जाता है, उसी प्रकार क्षि के भाराध्य देव, मानव या विषय की कीर्ति
उसके गायन से सर्वत्र व्याप्त हो जाये--यह्दी भाषना इस नामकरण के
मुल में समकी जानी चाहिए । इस घारणा की इढ़ता के लिए हम स्वय
कवियों द्वारा झ्पनी रचनाओं में दी गई तथा मालोचकों द्वारा की गई
व्याख्याम्रों को उद्घृत करते हैं--
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