वैराग्य सागर | Vairagya-sagar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7.64 MB
कुल पष्ठ :
292
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वैराग्य सागर । 2 नि #िििलध #९५ ४१ न ५७ थ 3.2५ ५४७५2 नर ९-५ 2-७_ मवजल तीर ॥ २ ॥ सीमंघर प्रमुख जघन्य तीथे- कर बीस । छे अढीट्वीपमां जयवन्ता जगदीश ॥ ३.॥ एक सौ ने सितर उत्कष्टा पद जगीदा । धन्य मोदा प्रुजी जेहने नमाव॑ की ॥ ४ ॥ केवली दोय कोड़ी उत्कूछा नव क्रोड़ । मनि दोय सहस्र कोड़ी उत्कूछ नव सहसत्र कोड़ ॥ ५ ॥ विंचरे विदेह में मोटा तपरवी घोर । भावे करी चन्दू टाछे भव नी खोड़ ॥ ६॥ चौवीसे जिन ना सघला .ए गणधार । चवदेसे ने वावन ते प्रणसू खुखकार ॥ ७ ॥. जिन चासन नायक घन्य श्री वीर. जिणन्द ।. गोतमादिक गणधर वर्त्ताव्यो झाणन्द ॥ ८ ॥ श्री ऋषभदेव ना भरतादिक सौ पूत ।_. बैराग्य मन आणी संयम लियो अद्भुत ॥ €.॥. केवल उपराजी करि करणी करतूत । जिनमत दीपावी सघला मोक्ष पहुंत ॥ १० ॥ श्री म्रतेम्बर ना हुआ . पाटोधर आठ । आदित्य जद्यादिक पहॉंता दिवपुर वाद ॥ ११ ॥ श्री जिन अन्तर ना . हुवा पाट असंख्य । सनि खुक्ति. पहॉँता स्दररिनमनियपपपदरम्परपसिपिसिसििसिसिस्टिसिसेटसिसििसििसिपपिसजस्यस्वरस्पटट
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