जयसंधि | Jaysandhi
श्रेणी : कहानियाँ / Stories
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7.17 MB
कुल पष्ठ :
224
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जय-संघि ढक नहीं बहन नहीं । यहां उनकी खर नहीं है । कह देना कि ऐसा न सोचें और बहन हम लोग कुछ नहीं कर सकती । अपने विवाह तक पर तो हमारा वश नहीं हैं। आगे हम क्या कर सकती हैं ? युद्ध होगा तो हो + जाओ बहन कह देना कि किसी को किसी पर दया करने की जुरूरत नहीं है । बसन्त सब तरह कीं कोशिश करके हार गई । और लौटकर सब हाल पति को कह सुनाया । सुनकर यशोविजय कुछ विचारते रह गए । फिर कहा बसन्त यश पागल हो गई है । में उससे मिलने जाऊंगा । बसन्त--पर उसने मना. किया हैं । और तुम्हारा लौटकर आना कठिन हैं । यशोविजय हंस पड़े । बोले कठिन मैं नहीं जानता बसन्त । यह जानता हू कि समय से पहले मेरा मरना असम्भव हैं और उधर यश एक- दम बौरा गई है । तुम्ही कहो मैं रुक सकता हूं? और यशोविजय नहीं रुके । 2 न १ यशस्तिलका बहुत घबरा गईं। जब परिचारिका के हाथ उसने पत्र पाया कि यशोविजय से आधवी रात के समय वह स्वयं बाहर छुंज में आकर न मिली तो वह शयन-कक्त से जायेंगे । यह सूचना पाकर वह किसी तरह कुछ भी अपने लिए निश्चय न कर सकी । जाने का समय हुआ कि कुंज मे भी न जा सकी । चह जाग रही थी और जाना चाहती थी पर पांव जेंसे बंध गए हो । वह उस समय पलंग पर उठकर बैठी थी पर उतर कर चलना उसके लिए संभव नहीं हुआ । ऐसे वेठी रहकर अन्त से सब बत्तियां बुमाकर वह फिर लेट गईं । यशोविजय ठीक समय पर कक्ष मे आ उपस्थित हुए । बत्ती बढाकर देखा कि यश पलग पर आखें सु दे लेटी है । सीधे सिरहाने बैठकर यशो-- विजय ने हाथ पकडकर कहा यश उठो तुम सो नहीं रही हो ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...