जयसंधि | Jaysandhi

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Jaysandhi by श्री जैनेन्द्र कुमार - Mr. Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जय-संघि ढक नहीं बहन नहीं । यहां उनकी खर नहीं है । कह देना कि ऐसा न सोचें और बहन हम लोग कुछ नहीं कर सकती । अपने विवाह तक पर तो हमारा वश नहीं हैं। आगे हम क्या कर सकती हैं ? युद्ध होगा तो हो + जाओ बहन कह देना कि किसी को किसी पर दया करने की जुरूरत नहीं है । बसन्त सब तरह कीं कोशिश करके हार गई । और लौटकर सब हाल पति को कह सुनाया । सुनकर यशोविजय कुछ विचारते रह गए । फिर कहा बसन्त यश पागल हो गई है । में उससे मिलने जाऊंगा । बसन्त--पर उसने मना. किया हैं । और तुम्हारा लौटकर आना कठिन हैं । यशोविजय हंस पड़े । बोले कठिन मैं नहीं जानता बसन्त । यह जानता हू कि समय से पहले मेरा मरना असम्भव हैं और उधर यश एक- दम बौरा गई है । तुम्ही कहो मैं रुक सकता हूं? और यशोविजय नहीं रुके । 2 न १ यशस्तिलका बहुत घबरा गईं। जब परिचारिका के हाथ उसने पत्र पाया कि यशोविजय से आधवी रात के समय वह स्वयं बाहर छुंज में आकर न मिली तो वह शयन-कक्त से जायेंगे । यह सूचना पाकर वह किसी तरह कुछ भी अपने लिए निश्चय न कर सकी । जाने का समय हुआ कि कुंज मे भी न जा सकी । चह जाग रही थी और जाना चाहती थी पर पांव जेंसे बंध गए हो । वह उस समय पलंग पर उठकर बैठी थी पर उतर कर चलना उसके लिए संभव नहीं हुआ । ऐसे वेठी रहकर अन्त से सब बत्तियां बुमाकर वह फिर लेट गईं । यशोविजय ठीक समय पर कक्ष मे आ उपस्थित हुए । बत्ती बढाकर देखा कि यश पलग पर आखें सु दे लेटी है । सीधे सिरहाने बैठकर यशो-- विजय ने हाथ पकडकर कहा यश उठो तुम सो नहीं रही हो ।




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