चौदह रत्न गुप्त सागर तथा गुप्त ज्ञान गुटका | Coidah Ratn Gupt Sagar Tatha Gupt Gyan Gutaka

Coidah Ratn Gupt Sagar Tatha Gupt Gyan Gutaka by परमहंस परिव्राजकाचार्य - Paramhans Parivraajakachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शुप्त सागर ष् की म्रतीति होती नदी हैं । यदि विना हुये पदार्थ की प्रतीति मानें तो बन्ध्या पुत्र आदि की श्रतीति दोना चाहिये कि-जों किसी को थी होती नहीं । अत -ऐसा प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि-पदाथो' मे ही आनन्द हैं । आप कइते हैं. कि-'पदार्थ सुख रूप नहीं है' ! यह कथन मेरी समझ में नहीं आता | यदि ऐसा कहा जाय कि-आत्मसुख का हो विपय में भान होता है, तो मेरे विचारालुसार यदद भो सभव नहीं, क्योंकि-आात्मा का तो किसी काछ में अभाव नद्दीं होता, आत्मा नित्य है, ऐसी स्थिति में सुख का भो कदापि-अभाव नहीं होना चादिये | यदि विषय में आत्म सुख का भान दो तो सदैव दो सुख को प्राप्ति होना चाहिये. परन्तु-सुख सदैच होता नहीं है । इससे यहदी जाना जाता है कि- विपय में दी आनन्द है, और प्रत्यक्ष भी देखने और सुनने मे आता है. “मेरे ख्री, पुत्र, वन; नदीं इस करके मैं बहुत दुखी हू । और शास््र द्वारा खुनने में आता हैं किन जिस काठ में देवराज इंद्रका और देस्थो का पदार्थो के बास्ते वड़ा भारी युद्ध हुआ तब देत्यों ने जय पाई और इद्र हार गया और भोगों की इच्छा करके दीन द्ोंगया; तच विष्णु भगवान्‌ के पास जा के विषय सुख के बास्ते बहुत दोनता को, “यदि बिषय में सुख नहीं होता तो-अमरेश विष्णु को कप का पात्र क्यों होता ? इससे जाना जाता है फि-विपय सें दी सुख है” |




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