मध्यएशिया का इतिहास 1 | Madhya Asia Ka Itihas-khand 1

Madhya Asia Ka Itihas-khand 1  by राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ड सध्यएसिया का इतिहास (१) [ १1१1१ के विभाजन को स्वीकार करें तो पुराजीवक आदि युग हुआ मध्य-जीवक द्वितीयक युग नवजीवक तृतीयक और चतुर्थक दो युगों में विभक्त हुआ । नवजीवक के तुतीयक और चतुथक युग भी अनेक भागों में विभक्‍्त हैं । इसी युग में प्रायः ५ करोड़ वर्ष पूर्व प्रथम स्तनधारी प्राणी का प्रादुर्भाव हुआ । इससे पहले के प्राणी (शुद्ध पक्षी दन्तधारी पक्षी ) अण्डज थे । अण्डज प्राणी का उत्पादन उतना सुरक्षित नहीं होता क्योंकि माता को अण्डे बाहर कहीं रख देने होते हूं जहाँ पर उनके खानेवालों की संख्या कम नहीं होती । उनकी रक्षा में मीन और दरट जैसे जल-धल उभयजीवी प्राणियों को विशेषकर अंडे से बाहर निकलने के बाद पानी और भोज्य पत्तियों के लिए वृक्ष सहायक होता है । स्तनघारी प्राणियों को सबसे बड़ी सुविधा यह है कि उनका अंडा बाहर नहीं बल्कि माँ के पेट के भीतर परिपुष्ट होता है और काफी दाक्ति-संचय के बाद बाहर आता है। उस वक्‍त भी तुरन्त वह अपने पैर पर खड़ा होकर स्वावलम्बी नहीं हो जाता किन्तु उसकी रक्षा के लिये जहाँ माँ की बच्चे के प्रति ममता सहायक होती है वहाँ माता के स्तन से दूध निकलकर भोजन से उसे निष्चिन्त कर देता है। नवजीवक कल्प एक तरह स्तनधारियों का कल्प था । जसा कि अभी कहा नवजीवक कल्प तृतीयक और चतु्थक दो युगों में विभकत हे । इस सारे नवजीवक को जीवन की उषा मान कर पाँच भागों में विभक्त किया गया है जिनमें उषा (एओसेन ) लघुउषा (ओलिगोसेन ) मध्यउषा (मिओसेन) और अतियउषा (प्लिओसेन ) के चार युगों को तृतीय युग कहा जाता है। मध्यउषा-युग आज से साढ़े तीन करोड़ वर्ष पहले था और अतिउषा पन्द्रह लाख वर्ष पहले । मियोसेन (मध्यउषा) युगके अन्त के करीब प्राग्मानव का आरम्भ माना जाता है। इसे स्पष्ट करने के लिए यह समझ लेना आवश्यक है कि उषायुग में ही लेमूर और नर-वानर वंश का अलग विभाजन हुआ था । लघुउषा-युग में अभी नर-वानर वंदा अलग नहीं हुआ था । यह मध्य उषा युग ही था जिसमें नर और वानर दोनों वंश अलग होने लगे । अतिउषा युग के सारे समय तक हम कल्पना ही से कह सकते हैं कि मानव का पूर्वज किसी रूप में . अवस्थित था। हमारे यहाँ सिवालिक में इस जन्तु की फोसील हड्डियाँ मिली हैं । तो भी इसमें भारी सन्देह है कि मनुष्य बनने की ओर बढ़ने में यह सफल हुआ था उधर बढ़ रहा था इसमें तो सन्देहू नहीं क्योंकि वनमानुषों की अपेक्षा उसके शरीर और कपाल का विकास अधिक मानवोचित था । तृतीय कल्प के अन्त में चाहे मानव का प्रथम पूर्वज किसी रूप में अस्तित्व में आया हो किन्तु उसका .स्पष्ट पता हमें चतुर्थयुग या अतिउषा युग में ही मिलता है जब कि उसे हम जावा-मानव पेकिंग-मानव हैडलवर्ग-मानव नियंडर्थल ( मुस्तेर )-मानव आदि के रूप में पाते हें। तो भी हमारे नृवंश (सपियन-मानव) का पता बहुत पीछे लगता है । मानव और उससे सम्बन्ध रखनेवाले प्राणियों के विकास का परिचय यहाँ दिये फलकों से अच्छी तरह हो जायगा । लेकिन मध्य-एसिथा में मानव-विकास को वहाँ प्राप्त सामग्री के आधार पर बतलाने के लिए यह जरूरी होगा कि वहाँ के प्राकृतिक भूगोल चर और जलवांयु के इतिहास पर भी कुछ कहा जाय क्योंकि मानव-विकास में इनका भारी हाथ रहा है।




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