राजर्षि | Raajsri

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Raajsri by रवीन्द्रनाथ टैगोर - Raveendranath Taigor

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तीसरा फारिच्छाद राजा की सभा ठगी है भुवनेश्वरी देवी के मंदिर के पुरोहित कार्य-वश राजा के दर्शना्थ आये हैं । पुरोहित का नाम है रघुपति। इस नगर में पुरोहित को. चोन्ताई कहते हैं । भरुवनेश्वरी देवी की पूजा के चौद्ह दिन के बाद अधे-रात्रि में चोद देबताओं की एक पूजा होती है। इस पूजा के समय एक दिन और दो रात कोई भी घर से बाहर नहीं आ सकता-राजा भी नहीं। राजा यदि वाहर आवे तो उसे म्वोस्ताई के समक्ष अर्थ-दंड चुकाना पड़ता है। किवदन्तीय है कि इस पूजा की रात्रि को मंदिर सें नर-वढ़ि होती है। इस पूजा के उपठक्ष में सबे प्रथम जो पशु-बढ़ि चढ़ाई जाती है वह राज- भवन से दान-स्वरूप प्राप्त की जाती है। इसी वढ़ि के छिये पशु प्राप्त करने के हेतु पुरोहित राजा के पास झाये हैं । पूजा के छिये केवल चौदह दिन और शेष हैं । राजा ने कहदा-इस साछ से मंदिर में पदु-चढ़ि नहीं होगी । समस्त समासद अवाकद्दो गये। राज-श्राता नक्षत्र राय के सर के बाल तक खड़े हो गये । 2 थ कि




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