मेरी कश्मीर यात्रा के पन्ने | Meri Kashmer Yatra Ki Panye

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Meri Kashmer Yatra Ki Panye by सुरेश मुनि - Suresh Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तु क्यो होत श्रघीरा रे : २४५ एंकदम दांत हो जाते हैं । कसी भी विषम स्थिति क्यों न भा जाए जीवन के सामने; “निश्वयवाद' की चिन्तन-घारा के भ्रन्तमंत में प्रवाहित होते ही, उस स्थिति के विष को पी जाने का बल जाग्रत हो जाता है हमारे श्रन्दर ! फिर नक्ोध की सहर प्राती श्रौर न ही चिस्ता की फाली रेखाएं तन-मन पर था पातीं; श्रीर न ही किसी तरह की श्रकुलाहट-घब राहट पैदो होने पाती श्रोर न वह विषम स्थिति हमारे जीवन पर किसी तरह कहा चोक ही बनने पाती ।. हंसते-मुस्कराते हम उस स्थिति को पार कर जाते हैं श्रासानी के साथ ! इसके दिपरोत, किसी विकट-स्थिति के सामने श्रादे हो, जब हमे व्यवहार को पकड़ लेते हैं, बाहर की तरफ देखने लगते हैं, तो हमारे मन की सश्ञीनरी गरस हो जाती है।. विषाद तथा चिन्ताश्रो का कंकरावात हसारे मानस को घेर लेता है । कलह-क्लेश पातावरण पर छा जाते हैं । हम श्रपने श्रापे से बाहर हो जाते हैं। इचर-तिघर चरसने के लिए गजेने पर उतारू हो जाते हैं ॥ मन के सहर को बाहर फेंकने की कोशिदा करने लगते हैं । मपन श्राप में उलभक कर हम वाहर की दुनिया में भी उलकनें पदा कर देते हैं। खर, 'निव्चयवाद' की बात ने बूढ़े के दिमाग की सशीनरी को बदल दिया, उसके तन सन-नयन को एकदस झात कर दिया । झ्ौर, हम भपनी मजिल पर शझ्रागे बढ चले चेन की बसी बजातते हुए ! चलते-चलते बारह बजने को श्राए !. घूप में तेज्ञी थी 1. सड़क गमें हो चलो थी !. ज्सीन-श्रासमान तपने लगे थे | पास में हमारे पानी नहीं रहा। प्यास लगी ।. इधर देखा; उघर देखा,




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