श्री मुनिसूव्रतकाव्य | Shri Munisuvratakavya

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Shri Munisuvratakavya by श्री अरहा दस - Shri Arha Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ क आानी अयश्य थी तथा जैनाचार्यों तथा मुनियों मे अपनी अखण्ड तपस्याओं और चामत्का पक सिद्धियों से यदाँ का धूलि पुंज के अणु-परमाणुओं तक को भा पूत कर दिखाया था अयश्य | तमा तो आज भी उस दिव्य उिमूति की फलक ढोगों घी आँखों को चका साँघ क्ये देती हैं। अस्तु मुनिछुचत स्वार्मों गाहस्थ्य जीयन समाप्त कर उिज़य नामर अपने पुत्रकों राज्य भार दे खय मेक्ष मार्ग के पक पथिक बने1 आपका पिय्राद कहाँ, क्सिकी बन्यासे हुआ था तथा आपको रिजय के अतिरिक्त और दूसरी कोई सतान थी कि नहीं भादि यातों का उल्लेण इस काव्य में कहीं नहीं है। आपके रिवाह के जिपय में केरल यही लिखा हुआ मिलता है कि “वित्रा रिनियर्तितदासरक्मा” अर्थात्‌ पिता ने इनकी शादी क्रदी। इस काव्य के सक्‍लयिता फरि फुजर परम सम्मानाई श्री महंद्यास जी है'। इनकी शतियों के द्वारा इनका समय निर्णय करना मेरे जैसे धहु कार्य व्यापत साधारण इतिद्वासन सस्झृत पण्डित के लिये नितान्त असम्मय् है। द्ा-यदि कोई सायकाश इतिदासघेत्ता जैन विद्वान्‌ स अमर फपि की कविता की ओर पटाक्षपात फरें तो अवश्य समय निर्णय तथा समालोखनात्मक भूमिका होसक्ती है। इतनः बात मैं अपश्य यट्टग) कि इनके समय निर्णय करने में छोगों को. आकाश पाताल का छुलाया अब एक नहीं करना पढ़ेगा। क्योंकि अभी तक इनके तीन काव्य उपलब्ध हुए है । यह 'मुनिछुतत फान्य” “पुसदेव चस्पू? तथा ० भय कण्ठाभरण”। इन तीनों फी निम्नलिखित प्रशस्तियों से यह बात ज्ञात होती है कि आपने अपना काव्य सुद पण्डितायार्य आशाधर जी को माना है। और आशाधर जी वी द्वी कचिता तथा उपदेश से प्रभावित तथा निनिमाल्तिचश्ु होकर यह * अहदद्ास कवि कविता रचना में अग्रसर हुए दे । मम्िश्यालक्सपटल बिसमाडुरे मे॑ युस्म इशा कृपय्याननिशनभृत । आशापगेक्तिसदम्जनसम्धवा स्च्चाजुत पृशुचस पथमाश्रितोउर्मिट (मु. क्ा०) सृक्त्येत़ तया भरमीरत्रों य॑ यृहाथवस्वाश्वरितात्मधर्मा 1 त पव शपाश्रविया सहाया बन्‍या स्वराणाय यूरिया ? ( सब्वक्यन्पबरण 7 मिल्थालपक्क्लुप सम मानसउस्सखित आशायराक्िकितएप्रसरे प्रथन्‍न | उल्लमितन शरदा पुत्तवमफ्त्या तच्च्पुटम्मःलजेन सयु्जम्मे ॥ एु० च० ॥ पण्डित झ्राशाघए का समय इतिहास वेत्ताओं ने उिक्म सम्बत्‌ १३०० निश्चित कर रखा है। अठ इनका भा सम्य दहा या इसके लगमग मानना समुचित होगा ।




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