सुम्रिता नन्दन पन्त वैचारिक व्यक्ति | Sumitra Nandan Pant Vaicharik Vaktitva

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Sumitra Nandan Pant Vaicharik Vaktitva by किरण गर्ग - Kiran Garg

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भी द्विविधा नहीं हुई। मुझे लगा कि मुझे मेरा मनचाहा कार्य मिले गया है । मेरे शोधकार्यं सम्बन्धी निर्देश देने के साथ ही मेरे निर्देशक ने यह भी निर्धारित कर दिया था कि पम्त जी के विचारों को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करने का उद्देश्य तभी पूरा हो सकता है, जब उसकी आधार-सामग्री का संकलन सीधे पन्त जी की रचनाओं से ही किया जाय और उनसे निर्गत धारणाओं की पुष्टि स्वयं पन्त जी की उक्तियो के उद्धरणं के आधार पर ही की जाय | उनक दारा संकेतित श्रोध-प्रविधि का उल्लेख इस ग्रन्ध के “विषयप्रवेश के अन्तर्गत अपेक्षित विस्तार के साथ किया गया ह! मैने अपनी सुविधा जरं सामथ्यं कं अनुसार अपने शोध-ग्रबन्ध में अपने निर्देशक द्वार बतायी गयी विधि का ही पालन करने का प्रयास किया। कार्य में प्रयृत्त होने के बाद मुझे लगा कि मेरे दार चुने गये शोध-विषय का आयाम मेरी पूर्व-कल्पना की तुलना में बहुत वडा हे ओर उसे अपेक्षित विस्तार के साथ प्रस्तुत करना एक शोध-प्रबन्ध की सीमा में और विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित अवधि के भीतर एक दुर्वह कार्य है! किन्नु विपय को परिसीमित करने की तब सुविधा नहीं रही थी, और इस कारण पर्याप्त काट-छाँट का सहारा लेते हुए उस प्रबन्ध में पन्‍्त जी कं विचार-वैभव को अप्रेक्षकृत संक्षिप्त रूप में ही प्रस्तुत करने के लिए मुझे विवश होना पड़ा था । में यह निवेदित करना चाहती हूँ कि विषय को संक्षेप में प्रस्तुत करने में मुझे कुछ अधिक श्रम और मनोयोग से काम लेना पड़ा था। विषय को समग्रता के साथ प्रस्तुत करने का लक्ष्य भी खण्डित न हौ ओरं प्रबन्ध का कलेषरे भी अतिविस्तार के दोष से बचा रहे, इसके लिए संकलित-सामग्री में से किसका उल्लेख करें आर किसे छोड दँ, की दुरूहं समस्या का सामना करना पडा ¦ उस शोध-प्रबन्ध का पूरा कर लेने के बाद जहाँ मुझे इस बात का संतोष हुआ था कि मैंने अपन मनचाहे विषय के सम्बन्ध में पर्याप्त गवेषणा की है और उसे अपने लेखन में सजाने का प्रयास किया है, वहीं मेरे मन में इस बात की भी स्पष्ट प्रतीति थी कि अभी इस सम्बन्ध में और अध्ययन करने ओर लिखने की अपेक्षा शेष रर गयी है। प्रस्तुत ग्रन्थ उसी प्रतीति का परिणाम रै । दसं ग्रन्थ को देखने के बाद यदि दूसरे शोधकर्ता और विदान्‌ इत कार्य की ओर अकृष्ट होम तो वह मः शोध-प्रयास की सार्थकता का ही प्रमाण होगा। यदि जीवन ने अवकाश आर सुविधा दी तो मैं भी इस दिशा में कुछ और करने की आकांक्षा रखती हैं । इस ग्रन्थ की व्यवस्था और इसमें निहित दृष्टि के सम्बन्ध में अपेक्षित निवेदन को मैंने ग्रन्थ के “विषय-प्रवेश” के अन्तर्मत स्थान देना ही अधिक 6 “ सुमित्रानन्दन पंत - चैचारिक व्यक्तित्व




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