पद्मपुराणम् | Padmapuranam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१) पद्मपुराण का रचना-काल सरकेत पञ्मचरितकी रचना भ० महावीर के तिर्वाण से १२०३ वर्ष बाद हुई हैः । यदि वीरनि० से '४७० ब्ष बाद विक्रम संवत्‌का प्रारम्भ माना जाय तो पद्मथुराण का रचवाकाल विक्रम सं० ७३४ में समझना चाहिए। दिगस्वर सम्प्रदाय में उपलब्ध कया-साहित्य भे २-१ ग्र्योक्रों छोड़कर यह ग्रत्थ सबसे प्राचीन है। यदि प्राकृत 'परमचरिउ' भी दिगम्वर ग्रन्थ सिद्ध हो जाता है (जिसका कि श्री भ्रन्तरंग-परीक्षण नही हुम्रा है) तो कहना पड़ेगा कि दिगम्बर कथा-यस्यों में यह सर्वप्रथम है । * राम चरित्र का चित्रण राम का चरित्र चित्रण करते वाले ग्रच्यो मे स्पष्टतः दो प्रकार पाये जाते हैं, एक पद्मपुराए का प्रकार प्रौर दूसरा उत्तरपुराण का प्रकार । जहाँ तंह पद्मपुराण की कथा का स्वस्थ है वह प्राय रामायण का ग्रनुतरश करती है पर उत्तरपुराण में राम का चरित्र एक नवीन ही ढग से चित्रित किया गया है । दोनो में कौन कथानक सत्य है या सत्य के अधिक समीप है --इस वात के निर्शय करने की मे कोई सामग्री उपलब्ध है श्रौर न हम में उम्के निशंय करने की भक्ति श्रौर योग्यता ही है। हम केवन घवलाकार वीरसेनाचार्य के शब्दों मे इतना हो कह सकते हैं कि दौतों ही प्रभाणीऊ श्राचावे हुए है सौर हमे दोनो ही प्रबारों का संग्रह करना चाहिए, यथार्थ र्वत्प तो बेवलज्ञानगम्प ही है । पद्पुराण के रचयिता आचार्य रविषेश संम्छृत पद्ययुराण के रचयिता आ्राचार्य रविपेण हैं। उन्होने प्पनी गुर-परम्परा इ्त प्रकार दी है:--« शाताश्ेपकतान्तमस्मुनिमतः सोपानपर्वावली, पारंय्यंसमाधित॑ सुदचना सारा्थमत्य(भु_तम्‌। आसीदिसगुरोदिवाकरयति शिष्योध््य चाहंन्‍्पुनिस्तस्मॉल्लक्मणसेनपः मुनिरद भिष्यो रविस्तु स्मृतम्‌ ॥-- अर्थति--भ० महावीर के पश्चात अशेप प्रागम के जानते वाली प्राचार्य-परम्परा मे इस्द्रगुरु हुए, उनके क्षिष्य दिवाफर्यति हुए, उतके शिष्य भ्रहृन्मुनि श्रोर उनके शिष्य लक्ष्मणासेन हुए । उनके शिष्य रविगेण हुए जिन्‍्होने यह पद्म मुनिका पवित्र चरित्र बनाया । हे रवियेशाचार्य की गुरुपरम्परा के आ्राचायों ने किन किल ग्रन्थों की रचना को है, इसका अद्यावधि नुछ पता सही लग पका पर रविषेणाचायं के उक्त शब्दों से इनना निश्चित है कि वे स्व आ्गमके ज्ञ ता थे | भ्रवः गुरु पर्वेक्र्से रविपेणाचार्य को भी प्रागम ज्ञान प्राप्त था ) प्रस्तुत पश्मधुराश का स्वाध्याय करने पर पत्रा खलता है कि रवियेशा- चाय को प्रथमानुयोगसम्बन्धी कथा-माहित्यका क्रितना विश्ञाल ज्ञान था 1 उन्होने अ्रपने इस भ्रन्थ में सहस्तों उपक- थाए निवद्ध की है। इसके भ्तिरिक्त चरणानुयोग, करुणानुयोग भर द्रव्यानुपोग-सम्ब्धी ज्ञान भी प्रत्यन्त बढ़ा बढ़ा था, जिसका पता हमे उतके कथानकोके वीच-वीच दिए गए स्वर्ग-नरकादिके बर्खन, द्वीप-समुद्रो के चित्रण, आरार्य॑- प्रनायों के भ्राघार विचार, र ब्रि-भोजनादि और पुण्य-पाफ के फलादिफ़ से चलता है। शात श्रौर करुश रत का तो इतना सुन्दर चित्रण शायद ही ग्र्यन्ष देखने को मिलेगा। सीता के हरे जाने के पश्चात्‌ रानकी दयतीय दशाका, लका के उपवनभे थौर देश-निष्कासन के परचातू वनमे छोड दिये जाने पर तथा अग्नि कुड को परीक्षा मे उत्तोश होने के बाद के वर्शान तो अलौकिक चमर्कारपुर्ण है । उन्हें पढते हुए एक वार ग्रासोसे प्राँसुप्रो को धार वहने लगती है भर जब हम लक्ष्मण के दिवंगत होनेपर राम की दक्षाक्ों देखते हैं, उनके प्रकृत्रिम और लोकोत्त र भ्रातृष्रेम को पढ़ते है तो उप्त समयका वर्ण करना हमारे लिए भ्रसभवसा हो जाता है। संक्षेप मे कहा जाय तो इस पद्मपुराण मे हमे सभी रो का यवास्थान सन्निवेश मिल्लेया पर इससे गधानता कदुश भौर शान्त रसकी हो है। ... *कामपावक साहस पर्वीमवदुलओ । फियाद तप 7777777777- हशताम्यविके समासहस्त्रे समतीतेःघंचतुर्थवर्षयुक्ते । जिनभात्करवर्धभानसिद्धो चरित॑ पर्ममुनेरिद तिबदम ॥ न॑पदुम० प० १३३, इलो० १६७ पदुंस० प० १२३, इलो० १८१




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