चतुर्दश - भुवन | Chaturdash-bhuvan

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Chaturdash-bhuvan by शिवशंकर शर्मा - Shivshankar Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्वद्वत्या!मि किसु नू मानिष्ये।ऋंग ६९६) सो +- वि पतयत्त:) से रे दोचचों कान इचर उचर दुर- २ गिर रहे छें (चज्ष:-- वि) रूरे सलयन भी इचर ऊचर दूर २ द्ौड रहें हैं (डुदये > यद ५ इद्स ५ ज्योतिः:) हुद॒य से स्थापित ऊो यह ज्ञानकूप ज्योति है चछ् भी (व + पतयरति) दुर-भाग रहा हैं (द्रेआशचीः+ में+ सनः -- दि - चरक्ति) अति , दूरखूघ दिकय सें ध्यान सगाकर सेरा यह सन को दूर २ विचरण कर रहां है ऐसो ऊझवसूया में मल के समोप (किस +स्विद्‌ + चक्यारि) क्‍या में कहूंगा कौर (किस -- उ+चक्ु- नएइनूण्य) कघर सच व्दरंगर 1 शित्ता--- प्रत्येक सन्तष्य का नित्य का यह अन्तर डे रक्क कण, चक्षु , सन झादि इच्द्रिय किसी काये में सूघर न हरें रहते । किल्चिन्सात् हो सरैका सिलने पर स्दट से इचर उचर भागने लगते हैं । ऐसी अनवस्पित दशा में सचलष्य सदन कार्य कद्रयपि नहों करसकता अतः्यहाँ मर्नाहे कि हे परसात्व- देव! सेरे करे, . चयच , झहुद्यरूथ ज्ञाच और यह सभत सवबही चारों तरफ-सोग रहेहें। के केसे आपके गया याऊं कैसे मनन करूं । है सगवान्‌ ! आशरेचोद करो जिससे फेरे सच इन्द्रिय ससाहित हों श्नौरठनतक्षेद्राराक्ोपकीपरक विभूतियांदेखूं। इस




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