काकोलूकीयम | Kakolukiyam

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Kakolukiyam by विष्णु शर्मा - Vishnu Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ य्धतन्त्रे- उक्त च+- य उपेक्षेत शरत्न स्वं घसरनन्‍्त यच्च्छुया । रोगं चालस्यसंयुक्तः स शनेस्तेन हन्यते ॥ २॥ जेसा कि उुना जाता है--दक्षिण देश में महिलारोप्य नामक एक नगर था उसके पास, अनेक शाखाओं से युक्त, अत्यन्त घने पत्तों से ढका हुआ एक बड़ का पेड़ था। उस पर मेघवण नाम का कौवों छा राजा रहता था उसके परिवार में अनेक कोवे थे । वह वहीं अपना दुग बनाकर परिवार सहित समय बिताता था-रहता था । तथा, अरिमदेन नाम का एक दूसरा उल्लुओं का राजा असंख्य उल्लुओं के परिवार के साथ पवत की गुफारूपी किले में रहता था। वह हमेशा ही रात्रि में आकर उस वढ-बक्ष के चारों ओर घृमा करता और पूवे शत्रुता के कारण, जिस किसी कोवे को पाता उसे मारकर जाता था । इस तरह अतिदिन आक्रमण करके धीरे-धीरे उसने, वह न्यग्रोध इक्षरूपी दुगे बाहर को ओर से कोवों से रहित कर दिया-बाहर के हिस्से में रहने वाले सब कौवे मार डाले । अथवा ऐसा होता ही है । कहा भी है :-- जो मनुष्य, आलस्य में पड़कर स्वच्छन्दता से बढ़ते हुए शत्रु और रोग की उपेक्षा करता है-उसके रोकने को चेष्टा नहीं करता-वह क्रमशः उसी ( शत्रु अथवा रोग ) से मारा जाता है ॥ २ ॥ तथा च-+- जञातमाजत्र न यश शत्र व्याधिशञ्व प्रशमं नयेत्‌ । महाबलो<पि तेनेव वृद्धि प्राष्य स हन्यते ॥ ३ ॥ जो मनुष्य शत्र तथा रोग को उत्पन्न होते ही नष्ट नहीं करता महावलवान्‌ भी वह बढ़े हुए उस रोग व शत्रु से मारा जाता है ( पाठान्तर में ) अत्यन्त पुष्ट अज्ञों वाला भी वह उससे मारा जाता है ॥ ३ ॥ अथान्येद्ः स वायसराज: सवोन्सचिवानाहूय प्रोवाच-भोः ! उत्कट- स्तावदस्माक॑ शञ्रुरुग्ममसंपन्नश्य कालविश्व नित्यमेव निशागमे समेत्या- स्मत्पक्षकदन करोति | तत्कथमस्य अतिविधातव्यम्‌ ? वर्य तावद्रात्री न पश्याम: न च॒ दिवा हुगे विजानीमो येन गत्वा प्रहरामः: | तदत्न कि युज्यते सन्धि-विग्नह-याना-सन-संश्रय हघीभावानां मध्यात्‌। अथ ते प्रोचु:-युक्तमभिहितं देवेन यदेष प्रश्नः कृत: | उक्त च--




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