श्रावक प्रतिक्रमण | Shrawak Pratikraman

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Shrawak Pratikraman by नन्दलाल जैन - Nandalal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[1 ताकत पाठक्ंगण ! यह प्रलिक्रमण आपके करकमंलेंमें उपस्थित है | प्रतिक्रण किप्तको कहने है ! और वह क्‍यों करना चाहिये यह वतला देनेसे इम पुस्तकक्की उपयोगता अधिक बढ नायग्री | प्रतिक्रतरणका “अपने भले बुरे किये हुए ( रृतकर्म ) कम्मोका आत्मनिदा पूर्वक त्याग करनेका भाव-आत्माका ऐसा विशुद्ध परिणाम कि भिप्तमें अशुम क्रियाओं निवृत्ति हो! यह वाच्यार्थ है। इस प्रकारके भाव भेद्र विज्ञानको उत्पन्न करते हे | प्रतिक्रमण पट जावश्यकोंके अंतर्गत एक भेद है | पद आावश्यकोंका पालन काना गृहस्थ और मुनियोके लिये दितान्त आवश्यक है । इतना ही नहीं, डिनन्‍्तु प्रतिक्रमण करनेसे आत्मो ज्तिके साथ २ भाषोंकी विशुद्धि और क्र्मोत्री निमरा सातिशय होती है | जीवमात्र सुख और जांतिका मार्ग अन्वेषण करते है | सुख और शातिका प्रधान मार्ग वीतरागता-कपार्योक्नी निवृत्ति है। कृषायोंकी विभय पापाचरणोंसे भय, विषयोसे निवृत्ति, ममत्वत्यै।ग, स्वातॉबोध ओर स्वात्मगुण चिन्तवन करनेसे होती है। प्रतिक्र- मण करनेसे उक्त पाचों काम स्वयमेव सिछ होते है। प्रातिक- मण झआत्मसाधनका ओर निर्वाणपदका झुरूप अंग साना गया है। अनादि काछसे यह जीव हिसा, झूठ, चोरी,क्ुशील और परिग्रह इन पंच पापोंमें निमग्न हो रहा है। और इनसे ही जन्म मरणके भयंकर दारुण दुःखोंको उठा रहा है| प्रतिक्रमण




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