अध्यात्म रामायण | Adhyatma Ramayana

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Adhyatma Ramayana by मुनिलाल - Munilal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[२] संकोच और आश्र्य तमीतक है जबतक हम सचे कर्ताको भूलकर तुष्छ देहामिमानके शिरपर सरें कर्दूव भोक्तृत्रका भार छाद देते हैं और उस देहामिमानकरो देहामिमान न समझकर अपना परमा्॑स्वर्ट्प मानवैसते हैं, नहीं तो जो लीछामय बिना किसी प्रयोजनक्रे केवड छीछाके ठिये ही इप्हामानत इस अवना. अलाएइ की सृष्टि करते हैं, जिनकी मायासे मोहित होकर हमारी इस हाइ-मांसके पश्नरम आत्मबुद्न हाती हैं. और फिर इसीकी आसक्तिमें फँसकर ख्री-धन-घरती आदि महाश्रृणित और असार बस्तुओंगं रमणीय-सुद्धि हो।ी है तथा जिनके छेशमात्र कृपाकणसे यह अनन्त त्रह्माण्ड बाढको मीत दो जाता हैं, उन महद्दामद्विम सर्वशक्ति- मान्‌ सर्वेश्वरत्े लिये क्या दुष्कर है ? उनकी जैसी इच्छा होती हैं उसी ओर सबको प्रदत्त होना पड़ता हैं और उनकी इच्छाके अनुसार ही उन्हें उसमें सफलता अथवा असकछता प्राप्त हाती रहता हैं | अस्तु | 'तोमार इच्छा पूर्ण हक कहणामय स्वा्सी' इस बंग-कहावतके अनुसार प्रभुने जो कार्य सौंपा है उसे उन्होंका काम समझकर उन्‍्हें।के इच्लितके अनुसार करते रहनेमें हूं। हमारा कल्याण है। और बालबगें हम करते भी ऐसा ही हैं, परन्तु ऐसा समझते नहों | इसीडिये उसकी सफल्ता-असपर्ताम हर्ष-आंकके शिकार होते हैं । प्रभु हमें ऐसा ही समझते रहनेकी शक्ति प्रदान करें । श्रीमदध्यातमरामायग कोई नवीन ग्रन्थ नहीं। है, जिसके विपयनें कुछ विशेष कहनेकी आवश्यकता हं॥ यह परम पवित्र गाथा साक्षात्‌ भगवान्‌ शंकरने अपनी प्रेयस्ती आदिश्वक्ति श्रीपार्थतीर्नीक्ों सुनायी है 1 यह आख्यान बद्माण्डपुराणके उत्तरखण्डके अन्तर्गत माना जाता है | अतः इसके रचयिता मदह्यमुनि वेदव्यासजी ही हैं । इसमें परमरसायन रामचरिनका वर्णन करते-करते पद-पदपर प्रसंग उठाकर भक्ति, ज्ञान, उपासना, नीति और सदाचार-सम्बन्धी दिव्य उपदेश दिये गये हैं | विविध्र विषयोका विवरण रहनेपर भा इसमें प्रधानता अध्यात्मतत्वके विवरेचनकी ही है | इसीलिये यह “अध्यात्म-रामायणा कहलाता हैं। उपदेदशभागकऋ सित्रा इसका कथाभाग भी कुछ कम मह्खका नहीं। है। भगवान्‌ श्रीराम मूर्तिमान्‌ अध्यात्मतत्त है, उनके परमपावन चरित्रकी महिमाका कहाँतक वर्णन किया जाय ? आजकल जिस श्रीरामचरितमानसमें अवगाहन कर करोड़ों नर-तारी अपनेको कृतकृत्य मान रहे हैं उसके कथानकका आधार भी अधिकांझमे यहां प्रन्थ है। श्रीराम- चरितमानसकी कथा जितनी अध्यात्मरामायणसे मिल्ती-जुछती है उतनी और किर्सासे नहीं मिलती । इससे स्पष्ट प्रतीत होता है. कि श्रीगोखामी तुल्सीदासजीने भी इसीका प्रामाण्य सत्रसे अधिक स्वीकार किया हैं | अवतक इस ग्रन्थके कई अनुवाद हो चुके हैं | चार-पाँच तो मेरे देखनमें भा आये हैं | प्रस्तुद अनुवादमें श्रीवेकटेशवर स्टीमग्रेसद्वारा प्रकाशित स्वर्गीय प॑० बलदेवप्रसादजी मिश्र तथा स्वगौय पं० रामेश्वरजी भट्टके अनुवादोंसे सहायता ली गयी है। इसके लिये उक्त दोनों महानुभावोंका मैं हृदयसे कृतज्ञ हूँ । इस अन्धरत्ञका अनुवाद करनेका आदेश देकर गीताग्रेसने मुझे इसके अनुशीलनका अमृल्य अवसर दिया है और फिर उसीने इसका संशोधन कराकर इसे प्रकाशित करनेकी भी कृपा की है, इस उपकारके लिये मैं उसके सद्चालकोंका हृदयसे आभारी हूँ। ' अन्तमें, जिन लीछामयके छीडाकदाक्षसे प्रेरित होकर यह लीला हुई है, उनकी यह लौछा आदरपूर्वक उन्हींको समर्पित है| इसमें यदि कुछ अच्छा है तो उन्होंके क्ृपाकठाक्षका प्रसाद है और जो भूल है. वह मेरी अहंकारजनित घृष्टताका फल है | इत्यल्म | विनीत- भनुवारक




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