स्तोत्र रत्नावली | Istrot Ratnawali

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Istrot Ratnawali by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सिंदष्तोप्रानि श्५ नानारोगादिदुःखाद्ददनपरव ४5 श हर न सदामि ।श्न्तब्यो० 1२| प्रौढो5३ योवनश्यों विपयविषधरें! पंद्रमिमेमंसन्धो दष्टो नष्टो विवेकः सुतधनशुवठिस्ादर्सोझ्ये निपण्णाः । पैवीचिन्ताविद्वीन मम हृदयमहो मानगर्वा घिहढे ।इन्तत्यो ० ।शे| वार्कक्ये चेन्द्रियाणां विंगठगतिमतिश्राषिरववादितापः पाए रोगेथिंयोगैस्वनरसितद॒पु: प्रोढिद्वीनं थे दीनमू । मिध्यामोद्यामिडाप अमति मम मनो पूजटे्ष्यानिशूर्ये (क्षम्तमयो ०४ नाना रागादि वुःजाके कारण में खेत ही रहता या उठ समय मी) मुससे शहरका स्मएण नहीं थना। इसडिये हे शिव ! हे दिप ! हे शहर | हे महादेष | है शम्भी | अप मेरा आर्य शमा कर) क्षमा फरो॥ २॥ जय मैं युपा अपस्पामे आकर प्रीढ़ हुआ तो पांच विपयरूपी सर्ने मेरे मर्मश्पानेमि डसा। जिसते मर विवेक नष्ट ह गया। और मैं पन। छी और सम्तानक सुख मागनेमें छा गया । उछ समय मी आपके चिन्तदनकों भूछफर भरा द्वदय बढ़े पमष्ड और ऑममानसे भर गया । अतः है शिए ! ६ शिर ! इ शइर ! है मददिय ! हे ध्वम्मी ! अब मेरा अरराध क्षमा करो ! क्षम/ कर 1 ॥ ३ ॥ प्ृद्धारस्था्म मी, अर इस्धियोंशी गति शिपिछ द्वा गयी है धुद्धि मन्द पड़ गयो ह और आषिदेविशाद करों; कर, रोगों औौर वियोवेत्ति धरोर ज्जोसत हो यया है मेरा मन मिप्या म्हेइ और धरमिस्णराओंसे दुरंड और दीन धोषर ( अपर ) शीमदादेदजीक़े सिन्तनसे धूप ही अम रशादै। अठः हे धिप [हे शिए | दे श्र | है गएदेए ! दे एप्पों | अब सेरा ऋरशप क्षण ब्यो। श्वरा घरों ॥ ४ |




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