आगमरहस्यम | Agama Rahasyam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावत्ता १७ तन्त्र-परम्परा श्रीर उसकी प्रामाणिकता_-वेद और तन्त्र भारतीय धर्म एवं संस्कृति की दो विशाल घाराश्रो के समान है, जो प्राचीन काल से इस देश मे भ्रक्षुण्ण रूप से प्रवाहित चली श्रा रही है। दोनो के बाह्य रूप मे कितना ही श्रन्तर क्यो न हो, परन्तु ग्रान्तरिक रूप से वे दोनो परस्पर मे इतनी संबद्ध है कि उन्हे सहोदरा कहना श्रधिक उपयुक्त होगा । बेदिक युग से ही दोनों के प्रति समाज की श्रद्धा, श्रादर श्रोर विश्वास-भावना का मापदण्ड एक जेसा रहता ग्राया है व्यावहारिक दृष्टि से विचार करे, तो दोनो धाराग्रो का उत्पत्तिस्नोत भ्रौर उ् श्य समान होने से, उनके बीच कृत्रिम विभाजन रेखा खींचकर उसके वास्तविक घरातल को विक्ृत रूप मे प्रस्तुत करना किसी भी हृष्टि से हितकर ग्रौर उचित नही लगता | श्रतएव शास्त्रीय हृष्टि से श्रागम या तनन्‍त्र की प्रामा- णिकता वेदो की तरह निरापद और शअसदिग्ध है । फिर भी तनत्रश्ास्त्र के मान्य अ्राचार्यों ने इस विषय में भ्रपना जो मत प्रकट किया है उसको समझ लेना श्रावश्यक है । ... ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार श्रीकण्ठाचार्य ने अपने शैवभाष्य मे लिखा है-- 'बय॑ तु वेदशिवागमयोर्भेद॑ न पश्यामः | वेदेईषपि शिवागम इति व्यवहारो युक्त: तस्य तत्कव कत्वात्‌ । भ्रतः शिवागमो द्विविध:--त्रवर्णिक-विषय: सर्व विषयश्चेति । उभयोरेक एवं शिव- कर्ता। श्रतः कत सामान्यादुभयमप्येकार्थपरं प्रमाणमेव । यहा, ब्रह्मप्रणवपञज्चाक्षरीप्रासादादिमन्त्राणां पशुपतिपाशादिवस्तुव्यवहा राणां भस्मोद्ध,लनत्रिपुण्ड्धारणलि ड्रार्चनरुद्राक्षघारणादिपरघर्माणामन्येषा च सर्वेषां व्यवहाराणामसुभयत्रापि सममेव दशनादुभावपि प्रमाणभ्रतौ वेदागमौ” -- श्रीकण्ठभाष्य २. २. ३८. इस भाष्य के व्याख्याकार श्रप्पय दीक्षित ने 'शिवार्कमणिदीपिका! मे तन्‍्त्रों को बेंदिक और श्रवेदिक दो भागों मे बाठकर, एक वेदाधिकारियों के लिए, दूसरा उसके श्रनधिकारियों के लिए बतलाया है । इसलिए श्रधिकारियो के भेद से आगम सर्वथा प्रामाणिक है । कुलार्णवत्तन्त्र के अनुसार भी वेदों को तरह तनन्‍त्र स्वत.प्रमाण माने गये हैं-- “तस्मात्‌ वेदात्मक शास्त्र विद्धि कौलागम प्रिये [! २, १४०, मनुस्मुति के टीकाकार कुल्लुक भट्ट ने श्रपनी मन्वर्थमुक्तावली मे-- “ग्रथातो धर्म व्याख्यास्थाम:, श्रुतिप्रमाणको धर्म: । श्रुतिश्च द्विविधा--बैदिकी तान्त्रिकी च। ->मनुस्मृति २. १ इस हारीत ऋषि के कथन को उद्धत करते हुए श्रूति के समान तन्त्र की प्रामाणिकता मानी है ।




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