कुट्टनीमत काव्यम् | Kuttnimat Kavyam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६] हैं। फिर 'कूट' शब्द का एक अर्य है कैतव | कृट्टुंदौ-कर्म भी इसौ कोटि का है। इसके द्वारा नायक-नायिका का सयोग सुगम हो जाता है। इसके पर्यावाची शब्दू है शंभली, माधवी, अजुनी, कुमदासी, गणेरका और रगमाता। सन्दर्भ कया सरित्सागर' के द्वितीय छम्वक में गृहसेन और देवस्मिता की कथा आठी है जिसमे परिग्राजिका योग-करडिका की शिप्या सिद्धिकरी का प्रसय आया है। इस दिष्या के इृत्य कुट्टनी जैसे है, किन्तु यहाँ पर कुट्टनी शब्द का प्रयोग गही किया गया है। क्षेमेद्ध के 'कछाविलास१! और “समय मातूकाईं मे यह शब्द आया है। जल्हण के 'मुग्धीषदेश३ में भी इसका प्रयोग मिलता है। विष्णु झर्मा कृत 'हितोपदेश' ' के मित्रल्ताभ प्रकरण के अन्तर्गत इस शब्द का प्रयोग देखने मे आता है। लोकोक़ित में भी कुट्टनी का प्रयोग हुमा है। बेश्याबृत्ति कामाचार और वेश्यावृत्ति मे लक्ष्यभेद है॥ काप्ताचार में रति सुख प्रधान है, जब कि वैश्यावृत्ति में अर्थोपाजंन प्रमुख है। कामसूत्र! मे कहा गया है कि पुरुषों की प्राप्ति होते पर वेश्याओ मे रति और जीविका नैरागिक री ही है।* घेश्या फा व्युत्पत्तिमूलक अर्थ वेशमहँति वेश्रेन दीव्यति आचरति, बेशेन पष्ययोगेन जीवति वा! है। इस शब्द के पर्याय है, रण्डी, वार-स्त्री, गणिका, क्षुद्रा, शूछा, लज्जिवा, बन्धुरा, कुम्मा, वर्ब्बठी, भोग्या, भुजिष्या, वार-बधू, नगरवधू पतुरिया, ३५ भिक्षुक-तापस बहुविधपुषण्यकल्ता ट्वोपदर्शशकलछा व । सिप्ता कलात्तिषष्द्या पर्यस्ते कुट्टनोकछा वेश्या ॥४1११ २ व्याप्रीव. कुट्टनी यत्र रक्‍तपानामिर्षपिणों । नास्‍्ते तत्र प्रगह्भन्ते जम्बुका इब कामुका ॥ १॥४१ प्रविष्दा कुट्टनीहीणगृहँ. क्षोपपटा.. बिटा: । गाया पढठन्ति गायन्ति व्ययद्रविणरमाथताः ॥ १॥४४ द्वाशग्रदत्तकर्पासु प्रहणग्रहर्णप्सया । कुट्टनोषु तृणापातेध्प्यन्मुलीपु मुहमुंहः ॥३।११ ३. बुडन्या: प्रुनरत्कदोस्कटमिंद तत्रास्त्यगरूयबतं, पताणाहुतिरेकेफेद सकते रत्नाकरेः कासिनि: ॥३३ ४. गतानुगतिको लोकः कुट्टनीमुपदैद्िनीम्‌ । प्रभाणयति नो थर्मे यया ग्रोत्यमपि द्विजमू ॥५७ ५. फुट्टिन्पश्चतुरक्था भवम्तवरोगाः [चतुर्भाणो, पृ० २५८) ६ बेश्यातां पुरुषाधियमे श्तिव त्तितच सर्गात्‌ 0६1१




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