भरतेश वैभव भाग - 1 | Bharatesh Vaibhav Bhag - 1

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Bharatesh Vaibhav Bhag - 1  by आचार्या देशभूषण मुनि जी महाराज -aacharya deshbhushn muni ji maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्री शुकदेव जी कहते हैं--महारानी मरुदेवी के सामने ही उसके पति से इस प्रकार कहकर भगवान अनन्‍्तर्धान होगए। परीक्षित्‌ | उस यज्ञ में महर्पियो द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किए जाने पर श्री भगवान महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए उनके रनिवास में महारानी मरुदेवी के गर्भ से द्गिस्वर सनन्‍्यासी और अहवेरेता सुनियों का धर्म भग्ट करने के लिए शुद्ध सत्वमय विग्रह से प्रकट हुएं। उनके लिए यह कीई आश्चय की वात नहीं समभझनी चाहिए, क्योंकि तुम्हें याद्‌ ही होगा कि उन्होंने गर्भ के अन्दर तुम्हारी रक्षा की थी। . ऋषमभदेव जी का राज्य शासन - श्री शुकदेव जी कहते ढैं--राजन्‌ ! नाभिनन्दन जन्म से ही भगवान विष्णु के वज्न-अकुश आदि चिन्हों से युक्त थे, समता, शान्ति, वेराग्य और ऐश्वय आदि महा विभूतियों के कारण /उन्तका प्रभाव दिनों दिन चढ़ता जाता था। यह देखकर प्रजा, मन्त्री, ब्राह्म ग ओर देवताओं की यह उत्कृष्ट अभिलाया होने लगी कि ये ही पृथ्वी का शासन कर । उन्तके सुन्दर ओर खुडील शरीर विपुल कीर्ति तेज, वल, ऐंश्वर्य, यश पराक्रम और शूर वीरता आदि गुणों के कारण महाराज नाभि ने उनका नाम “ऋषभ” (श्रेष्ठ) रक््खा | एक वार भगवान इन्द्र ने हष्यॉचश उनके राज्य सें वर्षा लहीं की। तव योगेश्वर भगवान कऋ्रपभ ने इन्द्र की मूखंता पर हंसते हुए अपनी योगमाया के प्रभाव से अपने वर्ष भरत नाम खएड में खूब जल बरसाया । महाराज नाभि अपनी इच्छा के अनुसार श्रेष्ठ. पुज पाकर अत्यन्त आनन्द मग्न होगए और अपनी इच्छा से मनुष्य शरोर धारण करने वाले पुराण पुरुष श्री हरि का सर्प्रेम लालन करते हुए, उन्हीं के लीला विलास से मुग्ध होकर 'वत्स ! तात !' ऐसा गदगद वाणी से कहते हुए बड़ा खुख मानने लगे । महाराज नाभि लोम तक का वड़ा आदर करते थे । जब उन्होंने देखा कि पुरवासी ओर मंत्रिगण ऋपषभदेव को वहुत मानते हैं, तो उन्होंने उन्हें धरम मर्यादा की रक्ता के लिए राज्यासिपिक्त करके ब्राह्मणों की देख रेख में छोड़ दिया | आप अपनी पत्नी मरुदेवी सहित वद्रिकाअ्रम को चज्ने गये । वहां अहिंसा बृत्ति से कठोर तपस्या और समाधि योग के द्वारा भगवान वासुदेव के नर नारायण रूप की आराधना करते हुए समय आने पर उन्हीं के स्वरूप में लोन होगये। पाणएडनन्दन ! राजा नाभि के विपय में यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है-- राजर्पि नामि के उदार कर्मों का आचरण दूसरा कीन कए सकता है जितझे शुद्ध कर्मों से संतुष्ट होकर साज्ञात्‌ श्री हरि उन्तके पुत्र होगये थे। महाराज नाभि ब्राञ्णों में भाक्ते भो बहुत रखते थे। इसी कारण व्राज्षणों ने पसन्न होकर इन्हे विप्णु भगवान के दशन करा दिए । भगवान ऋषभदेव भरत खणएड को कमभूमि मानकर लोक संग्रह के लिएकुछ काल गुसकल में वास फिप्ा । गुरुदेव को यथोचित दूक्तिणा देकर शृहस्य में पेश करने के लिए उनको गाता ली। पुनः देवराज्ञ इन्द्र की केन्या जयन्ती से वियाह क्विया तथा थ्रीत स्मार्स दोनों प्रकार रे शा्रोपदिप्ट कर्मों का आवरण करते हुए उसके गे से अरने ही समान सझुझ वाले सी एव




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