गणेशग -अंगक भाग -६ | Ganesh-angk Bhag-6

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Ganesh-angk Bhag-6 by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# गणद्ा-तत््वका महस्व % सटटडटटटाटनटटटाटाटडडटटटरटयटटटाटटटटटटरटररटटटटटरटटरटररटटटररसटटटटटटटटटारनसरराटटाानयटनयय क गणेशततका मद... ह ३७ ( स्वामी श्रीशरणानन्दजी मद्दाराज ) प्रत्येक मानव मानव दोनेके नाते जन्मजात साधक हे । साघक सभीके लिये उपयोगी दोता है। कारण कि सत्स्ञ दी साधकका खघर्म है । स्वधर्मनिष्ठ दोनेते दी साधक घर्मात्मा जीवन्मुक्त तथा भक्त हो सकता है । इस दृष्टिसे सत्सज्ञ दी अग्रगण्य देव गणेशकी पूजा है । सत्यकों स्वीकार करना सत्सज्ञ है । बुराईरहित दोकर साधक धर्मात्मा होता है और अकिंचन अचाह) अप्रयत्नपूर्वक साधक जीवन्मुक्त होता है तथा आत्मीयतासे जाय्रतू अखण्ड-स्पृति एवं अगाघप्रियतासे भक्त दोता है यह सत्सज्ञ अर्थात्‌ गणेश- तत््वका महत्व है । सच्चा सचन्चिन्तन और सत्कार्यके द्वारा सत्सज्ञकी मौंग जाग्रतू होती है । सत्सज् मानवका स्वघर्म है पर्चा चिन्तन तथा कार्यके लिये पराश्रय और परिश्रम अपेक्षित है किंद सत्सज्ञके लिये पराश्रय तथा परिश्रमकी अपेक्षा नददीं दै । अतः सत्सज्ञ स्वाघीनतापूर्वक साध्य है | निज शानके प्रकाशमे यद्द स्पष्ट विदित होता है कि दारीर और संसारसे मानवकी जातीय मिन्नता है । जिससे जातीय मिन्नता है उससे नित्य-योग तथा आत्मीयता सम्भव नदी है | इस दष्टिसि केवल जो अनुत्पन्न हुआ अविनाशी स्वा- घीन रसरूप चिन्मय अनादि अनन्त तत्व है उससे मानवकी जातीय एकता है और वह्टी मानवका अपना है | अपनेमे अपनेकी अखण्ड स्मृति तथा अगाधप्रियता खतः होती है । स्टृतिके जाग्रतू होते दी इन्द्रियाँ अविषय) मन निर्विकष्प तथा बुद्धि सम हो जाती है और फिर स्मृति योग बोध तथा प्रेमससे अभिन्न कर देती है । इस दृष्टिसे सत्सज्ञ दी एकमात्र सिद्धिदायक है | जो सिंद्धिदायक है वही गणेश-तत्त्व है गणेग-तत्वकों अपनाये बिना अन्य किसी भी प्रकारसे साध्यतरवकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । कारण कि सत्सज्ञसे ही असत्‌का त्याग और इस दृष्टिसि साध्यकी माँग ही साध्यकी प्रातिमे हेतु है । साध्य उसे नहीं कहते जो सेव सवंत्र सभीमे न हो और साधक भी उसे नहीं कहते जिसमें साध्य- की माँग न दो । इस सत्यकों स्वीकार करनेपर साधक खता साधन-तत््वसे अभिन्न हो जाता है जो साधकका जीवन तथा साध्यकी महिमा है । साध्यके अस्तित्व महत्व तथा अपनत्वकों स्वीकार करना सत्सड् है । साधकके लिये साध्यसे मिन्न किसी अन्य वस्तुका अस्तित्व दी नहीं है । इस वास्तविकताकों अपना लेनेपर साधक अर्किंचन अचाह तथा अम्रयल्पूरवक साधन-तत्तसे अभिन्न हो जाता हैं यह आस्थावान्‌ साधकोका अनुभव है । माँग और कामका पुल्न ही केवल सीमित अहम्‌-माव है | स्वभावजनित मौगके सबल होनेपर प्रमादसे उत्पन्न हुए कामका नादा हो जाता है और फिर माँग खतः पूरी हो जाती है जिसके दोते टी सीमित अहमू-भावका अन्त हो जाता है और फिर केवल साधन-तत्त्त और साध्यका नित्य-विह्दार ही शेष रदता है । जिस प्रकार साध्य अखण्ड असीम तथा अनन्त है उसी प्रकार साधन-तत््व भी असीम तथा अनन्त हैं । साघककी अभिन्नता साधन-तत्त्वसे होती है । साधन-तत््वसे ही साध्यकों नितनव-रस मिलता है जो क्षति पूर्ति और निद्नत्तिसे रहित होनेसे असीम है | साधकमे ही असीम साधन-तत्व और अनन्त साध्य तत्तक्रगुमान हैं । परंतु यदद रहस्य एकमात्र सत्सज्ञसे ही स्पष्ट होता है ।#इस दृष्टिसि गणेश-तत््वके द्वारा ही साधक प्रेम और प्रेसास्पदसे अभिन्न होता है इसी रहस्यको बतानेके लिये गौरी-इंकर रऔ्ता-राम और राधा-कृष्णके विह्वारकी चर्चा है । गणेशा-तत््वकौ गौरी और दिवका आत्मज कहा दे । पू्ण-तत््वसेही सुधन-तत्विकी अभिव्यक्ति होती है । साधन-तत््व और साध्यम असत्‌के त्यागसे दी अकर्तव्य असाधन और आसक्तिका नाग दोता है और फिर स्वतः साधकमे साधन-तत्त्वकी अभिव्यक्ति होती है । साधन-तत्व साधककों साध्यसे अभिन्न कर देता है | यदद जीवनका सत्य है । अकर्तव्यका अन्त होते ही कर्तन्यपरायणता खतः आती है । क्तव्यपरायणतासे विद्यमान रागकी निश्वत्ति होती है तथा सुन्दर समाजका निर्माण होता है । इतना ही नहीं कर्तव्यनिष्ठ साधकके जीवनसे अधिकार-लाठसाकी गन्ध भी नहीं रहती | कारण कि वह कतंब्यपालनमे दी अपना अधिकार मानता है । अधिकार-लोछपताका अन्त होते ही साधक क्रोघरदित हो जाता है। राग और क्रोधके न रहनेपर खतः योग तथा स्मृति जाग्रतू होती है । योग- बोधघसे स्मृति प्रेससे अभिन्न कर देती है । समस्त साधनोकी परिणति प्रेम-तत्वमे होती है । प्रेम-तत््व प्रेमास्पदका स्वभाव और प्रेमीका जीवन है और प्रेम-तत््वकी प्राप्तिमं ही जीवनकी पू्णता है । यद्दी साधकके विकासकी चरम सीमा है ।




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