बौद्ध - धर्म के 2500 वर्ष | Bauddh Dharm Ke 2500 Varsh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
266
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बौद्ध-धर्म का श्रारम्स सथा सुद्ध-चरित २२
इस प्रकार चार सप्ताह उसने बोधिवृच्ध के नीचे साधना में बिवाये। इसके घाद
घद् यात्रा पर निकला । राह में सार की लडकियों ने उसे घेर लिया और उसे लुभाने
की बड़ी कोशिश की । परन्तु अगवान छुल्ध इृढ़चित्त रदे। उन्होंने कहा कि ऐसे
प्रयत्न उन पर प्रभाव डाल सकते हैँ जिन्होंने अपने मन को चशीभूत्र नहीं किया है,
परन्तु उसका बुद्ध पर कोई प्रभाव नहीं ही सकता । याद में चुद्ध को दो व्यापारी
मिले, जिनके नास थे तपुस्स भौर मछिक । उन्होंने बुद्ध को जी भौर मधु का खाथ
दिया । ये घुद्ध के पहले शिष्य बने । उद्ध के सन में पहले यह शंका हुईं कि लोभ
ओऔर द्वंप से भरी दुनिया में अपना यह सत्य में क्यों बताऊँ ? परन्तु बाद में उसे
आात्म-विश्वास हुआ कि कुछ लोग दो ऐसे मिल्षंगे ही जिनकी दृष्टि साफ होगी।
वह इसी विचार से बनारस के पास ऋषिपतन (सारनाथ) में सुग-वन सें पहुँचे,
जहाँ उन्होंने धर्मचक्र-प्रवत न किया। यही मध्यम-माग का पाँच शिष्यों फो उपदेश
कहा जाता है, और संघ की स्थापना इस प्रकार से हुई ।
उरु्वेज्ञा का काश्यप पुक श्रग्निपूजक जठाधारी ब्राह्मण था जो बड़ा यज्ञ कर
रहा था। बुद्ध ने वहाँ एक जोकोत्तर चमत्कार दिखलाया । बुद्ध की श्रनुमति के बिना
ग्राद्मण अग्नि प्रज्ज्वल्ित न कर सके | जब अग्नि जलन उठी दो बहत बढ़ी बाढ़ हा
गई। बद्ध ने यज्ञ करने वालों को बचा लिया | काश्यप और उसके चेले बद्ध के
शिष्य बन गये । बदछू उन सबको लेकर गयाशीप में गये बोर वहाँ से मगध की राजधानी
राजगृह में । मगध के राजा विंविसार ने एक दंशवन संघ को विद्वार के रूप में दाय दिया
था । सगध में संजय रहते थे, जिनके कई शिष्य थे। सारिएुत्र और सोद््गल्यायन
सी उन्हीं में से थे। सारिपुत्र ने एक बौद्ध भिछ अश्वजिव के मुँह से सुना था कि :
“उन वस्तुओं के बारे में जिनका कारण है, भौर जो कारण दै, उसके घारे में
घुद्ध ने ज्ञान दिया है, शरीर उनका दुसन सी किस प्रकार किया ज्ञाए यह भी उस महान
विरुर ने बता दिया दूँ ।”* सारिपुन्न भी बुद्ध का शिप्य बन गया और उसके पीछे
सोद््गढ्यायन भी । संघ में ये दो बद्धिमान ब्राह्मण आ जाने से उसका गौरव बढ़ा । थे
भगवान बुद्ध के प्रधान शिष्य बने । उनके धातु आज भी सुरक्षित हैं और बौद्ध दीथों
में पूज्े जाते हैं 1३
१, निदानकथा, पेरा १३१
२, विनय, मदावग्ग (१,१०,२३)
३, नवस्थर १६५२ में ये अस्थि-अवशेष साँची में एक विशेष रूप से निर्मित स्तृप में पुनः
प्रतिष्ठित किये गये । ये पदले साँची से लन्दन के एक म्यूजियम में ले जाये गये थे । ये वापिस
लाये गये ।
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