गृहिधर्मकल्पतरु | Grihidharmakalpataru

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ श्रीवीरों विजयलेतराम ॥ 7%कऊकऊ-लकर टू आह स्माझा निज स्मरुप अनन्त ज्ञान आदिरुप है, पह हाना- #प्ए३)य घरणीय आदि जए कर्म दससे आप्छादित हो रद्द «४. है, एस कर्म दसका दर करने के खिसे सम्पकत्र्पन आदिब है, मिस प्क्तिदारा आस्मा परमारम स्परुप को पकट फरके दीप्यता को प्राप्त कर सकठा है, मिससे स्पपर कल्पाण झान्त मयार फरता हुआ संसार फी दुर्घट समस्या को घुखरुप बनाता है, सपने सीयन पुप्पों की मइकाती बन शा अम्बिस संसार का दुष्कृतरूप दुगैपी को मिटाकर बना पर अक्षय अमर सुर्तरों की सहर्रां में सतरायमान करता है, उस अमृतमपी घीक्तिका इस “ग्रष्टियस कपल्‍्तर” में सामान्य और बिटाप पर्मफ॑ रुपस पिशव सुक्स्पास शाह 'प्रपति कोल्हापुर राज्यगुरु ब्रासत्र्मचारी, प्लासनप्रमावक पद्मदश्न भाषा के ज्ञाता म्रमाषन्नासी आजमस्वी लाझमिय पधर्मोपदेश्क स्पास्यान- दाता जैन पर्भ के समसिद्ध पफाष्ठ पण्दितरतन साशुकूषि, घनि भी १००८ भी “घासीलासजी” मद्रानभीमे समझ्नया है, सो घापक हन्द दृ'खस्प इस संसार पापरको सुस्ममय सौन्दसमय बनाने




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