उपनिषदाय्र्यभाष्य | Upnishadaryabhashya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
324
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२... : _... उपनिषदाय्यभाष्य :
मायावादी नेहनानास्तिकिश्नन” इददा ४। ४ । रे: इस
बाद पर निर्भर करके यह केथन करते हैं कि इस सम्पूर्ण सार की
तीनो कालों में सचा नहीं अर्थात् शशश्षज्षादिकों के समान इसका अत्यन्ता-
भाव है, सो ठीक नहीं, क्योंकि ..जिस पदार्थ का जहां अत्यन्ताभाव होता
है वह पदार्थ वहां तीनो कालों में नहीं होता आर चहा न होने से ही
उसका अत्यन्तांभाव कहा जाता है, या यो कहो कि झनादिरनन्तो धांवो5-
टन्ताभाव: ”४:.... अर्नादि, तथा. अनन्त :अमाँव हो जसकां नाम
“आत्यन्तामोवे” हैं यदि संसार का तीनो कालों में अत्यन्ताभाव होता
तो इस प्रपञ्च की कदापि उपलब्धि 'न होती परन्त होती है ओर इस
उपलब्धि को मायावादी भी मानते है पर वह इस दोष का परिहार
इस प्रकार करते हैं कि. उक्त वृहृदारण्यक वाक़यःपरंमांथरूप से.जगत् का
ब्रह्म में अभाव कथन करता हैं अर्थात्: यह जगत् तीनो कालों में अह्म के
समान सद्गुप नहीं, और जो तीनो कालों में नाश को ग्प्तन्न हो उसको पर-
मार्थ. रूप से सद कहते हैं, सत तंथा-त्िकालावाध्य ग्रह दोनों एकायबाची
शब्द हैं, यद्यपि वैदिकमत में प्रकृतिंभीं नित्य कही जाती है, क्योंकि
उसका भी नाश कभी नहीं होता केवल स्वरूप का परिवतेन. होजाता है
तथापि उसको कूटरथ नित्य नहीं कहसक्ते, कृंव्स्थ नित्य केवल चेतन ही
होता हैं जड़ नहीं, इस प्रकार परिणामी नित्य वथा. कूटस्थ नित्य भेद से
नित्य दो प्रकार का माना गया है अस्तु, यहां प्रकार भेद केवल शास्त्र की
प्रक्रिया के वोधनाथ लिखागया, .प्रकृत यह हैं कि जिसका ध्यंस .न हो वह
८ नित्य ! कहलाता है, इस लक्षण में अतिव्यांप्तिर्प यह दोष आता है कि
ध्वंस का ध्वंस कभी नहीं होता, क्योंकि जब घट फट कर उसका भरध्व॑सा-
भाव होजाता है उस ध्वंस का नाश शास््रकार नहीं मानते, इसलिये उत्त
लक्षण को दोपरहित .करने के लिये यह लक्षण करना. चाहिये कि
“जंसमिन्नलेसतिधंसाअ्रतियोगित्॑ नित्यतम!!-जो पदार्थ स्वयं
ध्यंसरूप. न हों ओर न ध्यंस का प्रतियोगी हो उसको “ नित्य ” .
कपते हैं, यहां अभाव बांले प्रदार्थ का नाम “ प्रतियोगी ” है, जेसाकि
परद्ुत में घट अपने प्रध्वंसामाव का अतियोगी है, सो जो इस प्रकार अपने
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