धम्मपद | Dhammapad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
208
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पुप्फवग्गो र्ए्
राजगृद ( वेखुवन ) गोधिक ( येर )
५७-तेसे सम्पन्नसीला्न अप्पमादविहारिनं |
सम्मदज्ञाविमुत्तानं मारो म्ग्रांन विन्दति॥ १० ॥
। (तेषाँ सम्पन्नशीलानां श्रप्रमाद-विदह्ारिणाम् ।
, सम्यग-ड्ञा-विमुक्तानां मारो माग न विन्द्ृति || १४ ॥ )
(जो ) वे सदाचारी निरालस हो विहरनेवाले, यथार्थ ज्ञान द्वारा
मुक्त ( हो ग़ये हैं, ) ( उनके ) मार्गको मार नहीं पकड़ सकता ।
जेतवन गरद्ादिन्न
५८-यथा संकारघानस्मि उज्मरितत्मि महापथे।
_पुदुम॑ तत्थ जायेथ सुचिगन्ध॑ मनोरम ॥ १५ ॥
( यथा संकारधानं उज्मिते महापथे।
पद्म ततन्न जायेत शुचिगन्ध॑ मनोरमम् ॥ १५॥ )
७९-एवं संकारमूतेतु अन्धमूते पुथुज्जने ।
अतिरोचति पञ्ञाय सम्मासगुद्धसावकोी ॥ १६।
(एवं खंकारभूते. छन््धमभूते पृथग्जने।
अतिरोचते प्रश्या सम्यक् संचुछ-भ्रावकः ॥ १६॥ )
बढ़ी सद़क के किनारे फेंके कूड़े के ढेर पर जिस तरह कोई सुगंध
सुन्दर पद्म उत्पन्न हो जाय, उच्ती तरह झूड़े के समान छुद्र जज्ञ संसारखत्त
जनता में -सम्यक् सम्वुदध का शिष्य अपनी श्रज्ञा से श्रत्यधिक शोमित
होता है।
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