धम्मपद | Dhammapad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुप्फवग्गो र्ए्‌ राजगृद ( वेखुवन ) गोधिक ( येर ) ५७-तेसे सम्पन्नसीला्न अप्पमादविहारिनं | सम्मदज्ञाविमुत्तानं मारो म्ग्रांन विन्दति॥ १० ॥ । (तेषाँ सम्पन्नशीलानां श्रप्रमाद-विदह्ारिणाम्‌ । , सम्यग-ड्ञा-विमुक्तानां मारो माग न विन्द्ृति || १४ ॥ ) (जो ) वे सदाचारी निरालस हो विहरनेवाले, यथार्थ ज्ञान द्वारा मुक्त ( हो ग़ये हैं, ) ( उनके ) मार्गको मार नहीं पकड़ सकता । जेतवन गरद्ादिन्न ५८-यथा संकारघानस्मि उज्मरितत्मि महापथे। _पुदुम॑ तत्थ जायेथ सुचिगन्ध॑ मनोरम ॥ १५ ॥ ( यथा संकारधानं उज्मिते महापथे। पद्म ततन्न जायेत शुचिगन्ध॑ मनोरमम्‌ ॥ १५॥ ) ७९-एवं संकारमूतेतु अन्धमूते पुथुज्जने । अतिरोचति पञ्ञाय सम्मासगुद्धसावकोी ॥ १६। (एवं खंकारभूते. छन्‍्धमभूते पृथग्जने। अतिरोचते प्रश्या सम्यक्‌ संचुछ-भ्रावकः ॥ १६॥ ) बढ़ी सद़क के किनारे फेंके कूड़े के ढेर पर जिस तरह कोई सुगंध सुन्दर पद्म उत्पन्न हो जाय, उच्ती तरह झूड़े के समान छुद्र जज्ञ संसारखत्त जनता में -सम्यक्‌ सम्वुदध का शिष्य अपनी श्रज्ञा से श्रत्यधिक शोमित होता है।




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