धर्म शिक्षवाली भाग ५ | Dharm Shikshawali Panchva Bhaag

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Dharm Shikshawali Panchva Bhaag by उग्रसेन जैन - Ugrasen Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परमात्मा साज्ञात प्रेममय एव॑ प्रेम स्वरूप दे... २४ | सद्दता है, वद्दी महाशीलवान पुरुष पु यव अपनी आत्मा का ;त करने के लिये तत्पर रद्दता है और लोक वा कल्याण रुरता 1 बह यधा« में शूर दे ।” विनद्त्त का यद कहना सूरदूत्त के न भागया। वह विरागी दोंगया, और श्रीधर सुनिराज के पास एझर उसने विन-दी छा लेली 1 सूरत ने जिस प्राय. सम्राम- में अपने भुजनल और गरठा का परिचय देकर विचय प्राप्त वी थी, घेसे दी उहोने मे मार्ग में घोर तप तपा और मोक्तलदधी को आरप्त किया-- प्रपने आत्म कल्याण के लिये उन्‍्दोने मम्यर दशन, ज्ञान, चारित प्रांए तप वी भाराधना की और अपने मनुष्य जीवन फो गरथंऊ बनाया | प्रेशिक ! मनुष्य जन्‍म एने कया यदी सुफ़ज दे ढुनिया छे पघे में सफलता पानों गृदस्थ का कर्ते्य दे अवश्य, परन्तु मुध्य जीवन की साथेक्ता आत्म कल्याण बरने में दी दे।” प्रपती आत्म शक्ति के श्रठुघार सम्यक द्शन, ज्ञान, चारिनमई त्ननय घम की आराधना करनी चादिए। यह जहूरी नहीं कि पुनिपद्‌ धारण करके दी उसकी आराधना उरो, घर में रहकर भरी घम वी आराधना दो सकती हैं, परन्तु दिएत्त परिणाम होना चाहिए) अपने द्वित और अद्दित को पदचानने को हष्ट दोनी वाद्विए । बिना विवेक के न मुनि और न गृहस्य अपना कल्याण हर सकता दै। मरत मद्दारात घर में द्वो बैंयगी थे ! धन और गवेय्थ में अन्धे मी हुए ये। जीवन का ध्येय केवल रुपया कमाना नहीं दै--वद् ताशबान दै-छाया दे। छाया अपने आप




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