ध्वनि सिद्धान्त और व्यंजनावृत्ति विवेचन | Dhvani Siddhant Aur Vyanjana Vriti Vivechan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
178
श्रेणी :
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No Information available about गयाप्रसाद उपाध्याय - Gayaprasad Upadhyay
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रोतिकाल के पूर्व ध्वनि का फ्रमिक विकास १७
स्वीकृत गुशों की सल्या घटाकर तीन मान ली गई परातु उनकी नित्यता विपम्रक मायता को
ध्वनिवादी झ्ाचारयों ते भी बिना किसी ननुनच के स्वीकार कर लिया ।
घामन बह दास्द दाक्ति परिजय--यह मिश्चित है वि भमभिधा के सम्दाय में वामन ज॑मिनोय
भत के मानने वाले थे ।* मीमासा शास्त्र मे भभिषा छाब्द-शक्ति पर विशेष विचार हुमा है। “याय
एवं दशन जगत में लक्षणा का भी प्रवेश हो छुका था।* इन दोना धब्द-रक्तियों से प्रथवार
अलीमौति परिचित ये धौर उद्धोने इनका पत्रतत्र उल्लेख भी किया है परन्तु मष्मट इत्यादि
आचायों की भाँति उनका विवेचन नही किया है 1
बामन लक्षणा से भी पृूण परिचित जान पढ़ते हैं। उद्दोने वन्नोक्ति भलकार का लक्षण
मह माना हैं, 'सादश्य के कारण से को गई लक्षगा वन्नोक्ति झलकार मानो जाती है ॥) उसका
उदाहरण यह है --
“उसमिमील कमल सरसीनों केरवच निमिमील मुहूर्तात्' | उमोलन भौर निमोलन नेत्र घम
हैं जो सादश्य के कारण लक्षणा से कमल श्ौर कौरवों के वित्रास तथा सकोच को बोधित करते हैं।
लक्षणाविद् इस प्रसग में लक्षणा के द्वारा भ्रथ वी श्षीत्र प्रतिपत्ति स्वीकार करते हैं।४ मे सभी
भ्रविवक्षितवाच्य ध्वनि के उदाहरण हैं। यद्वाँ पर लाक्षणिक भर्य की झ्लोर तो श्राचार्य
का ध्यान है उसके प्रयोगन को भ्रोर नहीं। सक्षणा के प्रयोजन में ही ध्वनि होती है। इसी
को डा० नगेद्ध ने श्रानदवधन की पूव-सूचता स्वीकार किया दै।* यह उनकी व्यापक दृष्टि का
प्रमाण है ।
वामन के 'शद गुणो' मं वण ध्वनि का सकेत है, 'भषगुण” स्ोज के भ्तर्गत भ्रथ-प्रौढ़ि के
कई रूपों म भी ध्वनि की प्रच्छन्न स्वीकृति है। समास के भेद में केवल निमिषति बह देने से ह्ठी
दिवागना वा व्यक्तित्व ध्वनित हो जाता है, इसी प्रकार 'साभिप्राय विशेषण' प्रयोग में पर्याय
ध्वनि का हो प्रकारातर से वणन है। भथगुश कातित मे तो भ्रसलक्ष्यक्रम घ्वनि की प्रत्यक्ष स्वोकृति
है ही 1९
वामन के प्रथ परुणों के पूल में रस्--ध्वनि का भावात्मक सौन््दय विद्यमान है। उनके
उदारता, सौकुमाय, समाधि भौर प्रोज वे भनेक रूपो मे लक्षणा-यजना का चमत्कार है ।*
१ तद्धि जमिनीया जानीत। वयस्तु लश्यप्तिद्ों सिद्ध परमतानुवादिन । वृत्ति, का०
सू० बु०, ५ ३ १७
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३ सादब्यास्लक्षणा वक्रोक्ति । का० सु० बृ०, ४ ३ ८
शक्षणायाच मरित्यर्थप्रतिपत्तिक्षपत्व रहस्पभाचक्षत इति । का० सू० यू०, ४३८
की वृति 1
रे मर
का०सू०बु० वो हिंदी टीका की भूमिका, ए० २५
वही, भुमिका, पृ० १८४
सगेद्ध का० सू७ शृ० को द्विदी टी की भूमिका, पू० ४६
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