विक्रमादित्य | Vikramadity
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
260
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चैचैंठे मन को नहीं बहक कर अनुचित पथ पर चलने दो,
मोहित ह्वो प्रत्येक मूर्ति पर हठ कर नहीं मचलने दो;
उचित धेम पथ पर चलना है, धारण करो समाज विधान,
घेर्यं सहित मनको समझालो, इसमे ही होगा कल्याण ।
प्रधदेवी--धम अधर्म, उचित अनुचित, यह सब माया है, धोखा है
जिसका सवा सिद्ध हो जिससे वही माग बस चीोखा है
शासक को स्वतंत्रता सब है शासित नियमों म॑ जकड़े
जो अेक्षम्य नारि जग को है पुरुष वही करके अकड़ें;
नर जो करे धर्म सब कहते, नारीगण के डिये विधान,
उनका सब कुछ पाप क्षम्य है, रमणी हो पातकी महान !
है सीौन्दय, रूप, सम्पति पर अव्म्बित यह प्रेम नहीं,
हंदय प्रेमस का प्यासा है और मानता नेम नहीं;
जिससे मन की लगी लगन है वही एक उसका शआआराध्य,
फिर उसको अपनाने मे वह नहीं किन्हीं नियमों से बाध्य;
कैसे किस पर मम चल जाता यह रहस्य कुछ है दैविक,
आँखों के कौँटों पर तुल कर, हृदय, तुरत जाता है बिक;
इस ताले की कुंजी अब तक खोज खोज सब हार गये,
इस रहस्य को समझ न पाये कितने खो संसार गये;
प्रणण काम करता है अपना दोनों ओर, नहीं इक ओर,
इसकी सरिता बढ़ती है जब, देती डुबा तटों के छोर;
दो, विरक्त आसक्त शक्तियों में, झंज्ञा, संघर्ष मचा,
सरस हृदय में जलद पटल के, रास रचाकर, तड़ित नचा--
रसमय सभी सृष्टि कर देता पत्थर को भी पानी कर,
कर अंकुरित सुप्त साधों को, जीवन से देता है भर;
उसी अतनु ने, रंगभूमि रच, नयन लड़ा, उपंजायी पीर,
क्या विद्यसकी आँच नहीं कर पायी तुमको तनिक अंधीर !
यदि अक्तक अंनभिज्ञ रहे हो नहीं हृदय में उठी कसक,
यदि कुमार-होंठों ने प्रिय के छुआ नहीं है अधर-चषक
महक, बहक, यदि छिपा रहा हो छक कर पीने बाला मद,
परल रद्दा हो मुन्नको, बद कर, चोर स्वयं, बन अओंग॑ंद-पद,
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