बिहारी दर्शन | Bihari Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कवि-परिचय ७ से अपने क्लेश-हरण की प्राथना करता है। पिता से प्राथना करने का कारण संभवतः यह जान पड़ता है कि विहारीलालली के पिता केशवराय बड़े ही धर्मेनिष्ठ महात्मा थे, ओर विहारीलालजी सत्युत्र के समान उन्हें ईश्वर-तुल्य सममते थे। इससे विहारीलालजी की पिठृभक्ति का पता चलता है। भगवान्‌ केशव की आथना ठीक ही हे। दोहा श्रेष्ठ है। देखिए-- भावाथ-/जिन्होंने ह्िजराज-इुल[ (१)ह्िजराज +चंद्र,दुल > वंश । इस प्रकार ट्विजराज-कुल से ३६-वंश का अथ निकलता है, ओर श्रीमद्सागवत्त से यह स्पष्ट है कि यादव चंद्र-बंशी थे, इस पकार इसका अथ यदु-कुल्ञ निकलता है, एवं भगवान्‌ श्रीकृष्ण का यहुकुल में उत्पन्न होना प्रसिद्ध ही है। (२) ह्विज़राज-कुल से द्विल अथात ब्राह्षण ओर राज से श्रेष्ठत्व का बोध होकर ह्िजराज-कुल से श्रेष्ठ ब्राह्मण-कुल का अथ स्पष्ट है।] अथोत यदुकुल और श्रेष्ठ त्राह्मण- कुल में जन्म लिया, ओर जो स्ववश अथोत्‌ अपनी ही इच्छा से [ (१) भगवान्‌ श्रीकृष्ण राहसों का नाश एवं साधु पुरुषों का परित्राण करने के अथ अपनी ही इच्छा से अवतार धारण कर बज में बसे | (२) विहारी के पिता केशवराय भी अपनों ही इच्छा से भक्ति में इबकर (किसी आशिक कष्ट आदि के कारण नहीं) पु९्य भूमि बूज में वास करने लगे थे |। बृज में आकर बसे । ऐसे भगवान्‌ केशव ओर मेरे ईश्वर-तुल्य पृज्य पिता न मेरे संपूर्ण ( भब-भय-जनित ) क्लेशों को 8 के श्रीयुत मिश्रबंधु लिखते है-“परंतु दोहे पर गोर करने से प्रकट होता है कि केशवराय शब्द श्रीकृष्ण के लिये आया है, च्र कि कवि के पिता के लिये।” (हिंदी-नवरत्न द्वितीय संस्करण, प०-स ० २७5) यह श्रीमिश्रवंधुओं की भूल है। दोहे पर गोर करने से! यह सष्ट ह्‌




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