स्थानांगसूत्र | Sthanangsutr
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
40 MB
कुल पष्ठ :
908
श्रेणी :
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No Information available about प. हीरालाल शास्त्री - Pt. Heeralal Shastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ओगम-लेखन का श्रेय देवद्धिगणि को प्राप्त है । इस सन्दर्भ में एक प्रसिद्ध गाथा है कि वल्लभी नगरी में देवद्धिगर्णि
प्रमुख श्रमण संघ ने वीर-निर्वाण ९८० में आगामों को पुस्तकारूइ किया था । हे
देवद्धि गणि क्षमाश्रमण के समक्ष स्कन्दिली और नागाजु नीय ये दोनों वाचनाएं थीं, नागाजु नीय वाचना
के प्रतिनिधि झ्राचार्यकालक (चतुर्थ) थे । स्कन्दिली वाचना के प्रतिनिधि स्वयं देवद्धि गणि थे । हम पूर्व लिख चुके
हैं आय॑ स्कन्दिल और आये नागाजुत दोनों का मिलन न होने से दोनों वाचनाश्रों में कुछ भेद था 1७३ देवद्धि
गणि ने श्र् तसंकलन का कार्य बहुत ही तटस्थ नीति से किया । आचार्य स्कन्दिल की वाचना को प्रमुखता देकर
नागाजु नीय वाचना को पाठान्तर के रूप में स्वीकार कर अपने उदाकत्त मानस का परिचय दिया, जिससे जैनशासन
विभक्त होने से बच गया । उनके भव्य प्रयत्न के कारण ही श्रननिधि झाज तक सुरक्षित रह सकी ।
आचार देवद्धि गणि ने आग्रमों को पुस्तकारूढ़ क्रिया। यह वात बहुत ही स्पप्ट है। किन्तु उन्होंने
किन-किन आ्रागामों को पुस्तकारूढ़ किया ? इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता । नन्दीसूत्र में श्र् तसाहित्य
को लम्बी सूची है। किन्तु नन््दीसूत्र देवद्धि गणी की रचना नहीं है। उसके रचनाकार आचार्य देव वाचक हैं।
यह बात नन््दीचूणि और टीका से स्पष्ट है ४४ इस दृष्टि से नन््दी सूची में जो नाम आये हैं, वे सभी देवंद्धि गणि
क्षमाश्क्मण के द्वारा लिपिवद्ध किये गये हों, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता | पण्डित दलसुख
मालवणिया” का यह अभिमत है कि अंगसूत्रों को तो पुस्तकारूढ़ किया ही गया था और जितने अंगवाह्म ग्रन्थ,
जो नन्दी से पूर्व हैं, वे पहले से ही पुस्तकारूढ़ होंगे। नन््दी की आगमसूची में ऐसे कुछ प्रकीर्णक ग्रन्थ हैं, जिनके
रचयिता देवद्धिगणि के बाद के आचायं हैं । सम्भव है उन ग्रन्थों को बाद में आगम की कोटि में रखा गया हो ।
कितने ही विज्ञों का यह अभिमत है कि वल्लभी में सारे आागमों को व्यवस्थित रूप दिया गया। भगवान्
हावीर के पश्चात् एक सहस्न वर्ष में जितनी भी मुख्य-मुख्य घटनाएँ घटित हुईं, उन सभी प्रमुख घटनाओं का
समावेश यत्र-तत्र आगामों में किया गया । जहाँ-जहाँ पर समान आलापकों का बार-बार पुनरावरत्त न होता था,
उन आलापकों को संक्षिप्त कर एक दूसरे का पूर्तिसंकेत एक-दूसरे आगम में किया गया। जो वर्तमान में आगम
उपलब्ध हैं, वे देवद्धिगणि क्षमाश्रमण की वाचना के हैं। उसके पश्चात् उसमें परिव्तत और परिवध॑न
नहीं हुआ ।४६
यह सहज ही जिज्ञासा उद्बुद्ध हो सकती है कि आगम-संकलना यदि एक ही आचाये की है तो अनेक
स्थानों पर विसंवाद क्यों है ? उत्तर में निवेदन है कि सम्भव है उसके दो कारण हों। जो श्रमण उस समय
विद्यमान थे उन्हें जो-जो आगम कण्ठस्थ थे उन्हीं का संकलत किया गया था। संकलनकर्त्ता को देवडद्धिगणी
क्षमाश्रमण ने एक ही बात दो भिन्न आगामों में भिन्न प्रकार से कही है, यह जानकर के भी उसमें हस्तक्षेप करना
अपनी अनधिकार चेष्टा समझी हो ! वे समभते थे कि सर्वेज्ष की वाणी में परिवर्तन करने से अनन्त संसार बढ़
सकता है | दूसरी बात यह भी हो सकती है--नौवीं शताब्दी में सम्पन्न हुई माथुरी और वल्लभी वाचना की परम्परा
७२. वलहीपुरम्मि नयरे, देवडिडपमुहेण समणसंघेण ।
पुत्थदइ आगमु लिहियो नवसय असीआओो विराझो ॥
७३. परोप्परमसंपण्णमेलावा य तस्समयाञश्रों खंदिल्लनागज्जुणायरिया काल काउं देंवलोगं गया | तेण तुल्लयाए वि
तह धरियसिद्ध ताणं जो संजाओ कथम (कहमवि) वायणा भेझ्ो सो य न चालिओ पच्छिमेहि ।
“ऊकेहावली-२९८
७४. नन््दीसूत्र चूणि पृ. १३।
७५. जैनदशन का आदिकाल, पृ. ७
७६. दसवेझ्ाालियं, भूमिका, पृ. २७, आचार तुलसी
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