पञ्चतन्त्रम् प्रथम तन्त्रम् | Panchatantram
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
618
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मित्र भेद १७
दमनक आह--मा मेव वद।
अप्रधान! प्रधान स्यथात्सेवते यदि पार्थिवम् ।
प्रधानोः5्प्यप्रधान स्पाद्यदि सेवाविवर्जति ॥ ३५॥
यत उक्त च--
आसन्नभेव नृपतिर्भजते मनुप्य विद्याविहीनमकुछीममसस्क्ृत वा)
प्रायेण भमिपतप प्रमदा लताश्व यत्पाश्वंतो भवति तत्परिवेष्टयन्ति ॥३६॥
तथा च-कोपप्रसादवस्तुनि ये विचिन्वन्ति सेवका |
आरोहन्ति शने पश्चाद घुन्वन्तमपि पा्थिवम्र् ॥ २े७॥
विद्यावता महेच्छाना शिल्पविक्रमशालिनाम् ।
सेवावृत्तिविदा चेव नाश्नय पाथिव विना ॥ रे८ ॥
ये जात्यादिमहोत्माहानचरेन्द्रान्नोपयान्ति च॑।
तेपामामरण भिक्षा प्रायश्वित विनिमितम् ॥। ३९ ॥
ये च प्राहुर्दुरात्मानों दुराराष्या महोभुज !
प्रम॒दाएलस्प॒जाड्यानि ख्यापितानि निजानि ते ॥ ४० ॥
दमनकने कहा-- ऐसा मत कहो?॥
यदि राजा की सेवा करे तो अप्रधान प्रधान हो जाता हैं और सेवा से
पराइमुख हो तो प्रधान भी अप्रघान हो जाता है ॥ ३५ ॥|
कयोकि कहा भी है-- राजा अपने समीप के ही मनुष्य को मानता है, चाहे
वह विद्यारहित, अकुलीन अथवा सस्कार-रहित ही क्यों न हो ? प्राय राजा
स्त्री और लताये जो समीप में रहता है, उन्ही का परिवेष्ठन करती है ॥ ३६ ॥
ओऔर भी--जो सेवक लोग स्वामी के क़ोघ और प्रसन्नता के कारण पर
सनन किया करते हैं, वे धीरे-घीरे प्रतिकूल राजा के यहाँ भी ( उच्च पद पर )
अपना स्थान बना लेते हैं ॥ ३७ ।॥॥
विद्वान, कारीगर एवं पराक्रम से युक्त और सेवावृत्ति के जानने वाले लोगों
, का राजा को छोड कर--अन्यत्न कहीं आश्रय नही रहता ॥ ३८ ॥
जो अपनी जाति आदि के गौरव के कारण राजा के समीप नही जाते
उनके छिए मरणपय॑न्त मिक्षा माँगना ही प्रायश्चित्त कहा गया है ॥ ३९॥
जो दुरात्मा यह कहा करते हूँ कि “राजा बडी कठिनाई के द्वारा आराघना
र२प० भि०
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