सिद्धभेषजमनीमाला | Siddhbheshajmanimala
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
366
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गुच्छ ] प्रथमो गुच्छः ।
सो5हं संप्रति सिद्धभेषजमणीनाहत्य मालामिमां
गुम्फासि स्फुरद्चछगुजछरूचिरां विद्वक्धिपक्प्रीतये ॥ ५॥
श्रीकष्छवाहकुलपुष्करचित्रभानुमानो वर्भूव न्पतिः प्रथिताभिमानः ।
यः काव्वुलावधि विजित्य महीं महाव्धावक्षालयद् द्विपषद्खकलुष कृपाणम्&
तस्यान्चये समभवज्ञयसिहवर्मी घर्मादरः समधिकं हयसेधकर्मा ।
उच्चेश्च तुष्पटिविचित्रचतुष्पर्थ यः शिविपित्रजजयपुरं' परम व्यधषत्त ॥ ७॥
जातस्तस्यान्ववाये मह॒ति महितधीदृ्पणध्वंसदीक्षें
श्रीरामः प्रोहकामः सुकृतम तिरखत्सम्प्रदाय प्रमाथी ।
बैद्य - समाज की प्रीति के लिये, सिद्ध - भेपज्ञ रूपी सणियों को एकन्नित करके - समुज्वछ
निर्मल - गुच्छों मे विभक्त इस रमणीय - माछा की रचना प्रारभ करता हूं ॥ ५ ॥
परम - सनखी मानसिंह - भूपति, श्रीकच्छवाह -वंश - कमल के किये साक्षात्
सूर्य के समान थे-जिन्दोने काबुरू-परयत- प्रथ्चीपर विजय प्राप्त करके शन्नुओ के
रक्त से रजित अपनी क्ृपाण को महासमुद् मे धोकर ख्च्छ की थी ॥ ६ ॥
इनकेही वेश में श्रीजयसिद्द वर्मा उत्पन्न हुये। धम में प्रगाढ-श्रद्धोपेत
इन्होंने अश्वमेघ यज्ञ किया था । कुशल शिल्पियों द्वारा सुंदर - चतुष्पयों से समन्वित,
दीध राजमार्ग चाले रमणीय नगर जयपुर का निर्माण इन्होंने ही किया ॥ ७ ॥
इसी महावंश में, उत्तम - प्रतिभा - सपन्न, पुण्य - मतिवाले, असत् संप्रदाय के
विनाशक, दूषणरूपी दूपणासुर के सहार मे कृत-निश्चयी, लोक के योग -क्षेस की
१-अनेन प्रेक्षावत्प्रतत्य4मभिषेयोक्तिस्तवा भिषक्रप्रसाद, प्रयोजनम् । मुख्यप्रयो-
जनमनायासेनारोग्यमित्यपि ज्ञेयम्ू । २-सूर्यः। ३-श्रीमानसिह । अरय॑ च महावीर-
तया जगत्प्रतीत श्रीमद्करशाहदिल्लीदुश््यवनस्थ प्रधानसेनापतिः कच्छवाहवंशमहाकाब्ये
सपरिवारो वर्णितः । प्रसप्नात्त्रत्य कश्विदेक 'छोक विलिख्य दशेयाम ---
मातुं मानमहास्यतीव न गुरु प्रोढोइपि सन् स्वर्गुरु
सा गीगायति कि तु नान्तमयते काव्यस्थ कक्षा कुत ।
वल्मीद्वीपभवी कवी तु जरठी का माहशाना कथा
यत्सख्य[कलन - क्रियासु विऊल शेषो5पि शिष्यायते ॥
इत्यश्मसगममाप्तो श्रीगुरुक्ततिद्र एव्येति ।
४-अयमपि तन्रैव महाकाव्ये दशमेफ़ादशसर्गयोः सब्यास वर्णित: 1 यथा--
“राज्य वर्धितमाहवेषु विजितं खच्छे यशोज्प्यर्जित
शिल्पिक्षण्णमयस्मय जग्रपुर निर्माय विख्यापितम् ।
येनायाजि तुरहइमेवविधिना द्रव्य द्विजेस्यो5पिंत
सोच्य श्रीजयर्सिदवीरनृपति स्थात् कप््य वास्गोचर ।”
इत्यलम प्रस्तुतेन । ५--अस्य पुनर्वणैन जयपुरविलासे द्रष्टव्यमू ॥ ६-व्यधापयत् 1
७-दूषणध्वसे दूबषगनामरक्षोविनाशे दीक्षा यस्य स तथा। एतेन भ्रीरामचन्द्रौ पम्य ध्वनितम्।
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