गदनिग्रह | Gadanigrah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
41 MB
कुल पष्ठ :
835
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शालाक्यतन्त्रे शिरोरोगाघिकारः १ ३३
शिरःशूल मस्तिष्क-सम्बन्धी रोगों का सुख्य छक्षण है। यह सिर के निर्त
भागों पर प्रभाव होने के कारण उस्पन्न होता है |
(१) कपालास्थि-बहिर्गत कारणः--इसमें कपाछास्थि तथा उसकी
पेशियों एवं रक्तचाहिनियों सें आधात या दबाच पड़ने के कारण शिरःशूछ
होता है । ४
(२ ) कपाछान्तंगत कारण:--कपाछास्थियों के अन्दर बड़ी-बड़ी रक्त-
चाहिनियों एवं पांचवी, नोवी तथा दुश्वी सिर की नाड़ियों पर प्रभाव पढ़ने के
कारण भी शिरः्शूछ होता है।
सस्तिष्क-सम्बन्धी रोग---
(भर ) मस्तिष्क के अल्ुंद्
(ब ) मस्तिष्कावरणशोथ
( स ) मस्तिष्क-सुषुस्ना-जल की वृद्धि
इनमें शिरःशूल होता है । इसके अतिरिक्त आंख, नाक तथा दांत के ब्रण-
शोथ में भी शिर में वेदना होती है । शिरोरोग के अन्य कारण भी होते हैं
जैसे-- पुरःकपालास्थिशोथ, प्रतिश्याय, नासायवनिका की चक्रता, तारामंडल-
ग्रोथ, अधिसन्ध, दांत की सूजन, मध्यकर्ण की सृजन के प्रिसाण-स्वरूप शिरो-
रोग होता है । इसके अतिरिक्त मस्तिष्कावरणशोथ, मस्तिष्काबुंद, विद्नधि,
सस्तिष्कात फिरंग, जीण॑बुक्कशोथ, सूनत्नरविषमयता, रक्ताधिक्य, योषापस्मार,
अद्धांवमेदक, आन्त्रिक ज्वर, मसूरिका आदि के कारण भी शिरःशूछ होता है ।
दशविधशिरोरोगाणां क्रमेण छक्षणानि---
यस्यानिमित्तं शिरसो रुजश्व अवन्ति तीत्रा निशि चातिमान्नम् |
बन्घोपताए: प्रशमश्न यत्र शिरोभिताप' स समीरणेन ॥ ३॥
दश् प्रकार के शिरोरोगों के क्रमशः लक्षण--वातिक शिरोरोगः--निस
सलुष्य के सिर में बिना किसी दृष्ट कारण से तीघ्रवेदना हो, जो राज्नि में बढ़
जाय और बांधने तथा स्वेद्न से शान्त छो जाय, उसे 'वातजन्य शिरःशूल!
समक्षना चाहिए ॥ ३ ॥
विमर्शः--शंख प्रदेश मे सुई के समान चुभन, औवा के पश्चात् भाग सें
फटने जेसी चेदना, अ्रुकुटियों का मध्य एवं मस्तक पीढ़ा के साथ घृमता है, कानों
में झनप्षनाहट होती रहती है, रोगी ऐसा अज्लुभव करता है कि कोई आंखों
को बाहर निकाल रहा हो, शिर में चक्कर सा प्रतीद होता है, तथा मालूम
पड़ता है कि सिर धद़ से अलग द्वो रहा हो । सस्तिष्क की सिराएँ स्फुरण
करती हुईं प्रतीत होती हैं, कन्चे तथा हचु अकड़ जाते है, प्रकाशासश्ता
( प्रकाशसंत्रास ) और नासाज्ाव होता है। अकस्मात् तेल-मर्दत, स्नेहन,
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