पंख होते है समय के | Pankh Hote Hai Samay Ke

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Pankh Hote Hai Samay Ke by राजेन्द्र गौतम - Rajendra Gautam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घ्य्य्डें पिता सरीखे गाँवें” ४ 5८ तुम भी कितने बदल गए ओ, पिता सरीखे गाँव । परम्पराओ - सा बरगद का कठा हुआ यह तन बो देता है रोम - रोम मे बेचेनी सिहरन तभी तुम्हारी ओर उठे ये दिठके रहते पाँव! जिसकी वत्सलता मे ड्बे कभी सभी सच्रास पच्छिम वाले उस पोखर की सडती है अब लाश किसमे छोड, सपनो वाली कागज की यह नाव। इस नक्शे से मिटा दिया है किसने मेरा धर बेखटके क्यो धूम रहा है एक बरेला डर मंदिर धाली इमली की भी घायल है अब छाँव। (धमयुग 15 1 1984) पथ्व होते हैं समय के. २५




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