उपासकध्यायना | Upasakadhyayana

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : उपासकध्यायना  - Upasakadhyayana

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about कैलाश चन्द्र शास्त्री - Kailash Chandra Shastri

Add Infomation AboutKailash Chandra Shastri

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
प्रस्तावना ७ /स्वय ब्रह्माने यज्ञके लिए पणुओकी सृष्टि को है। ओर यज्ञ सबकी समृद्धिके लिए हैं। अत, यक्षमें पदु- का वध अवध हैं। मधुपर्क, यज्ञ, पितृकर्म और देवकर्ममे ही पश्ु-हिसा करनी चाहिए, अन्यत्र नहीं, मनुने कहा हैं। वेद ओर वेदार्थकों जाननेवाला द्विज इन पूर्वोक्त कर्मों पशुकी हिंसा करता हुआ और उस पशुको उत्तम गति प्राप्त कराता है 1” ज यह सुनकर यश्ोघर अपने कान बन्द करके दीर्घ नि श्वास लेता है और अपनी मातासे कुछ कहनेकी भाज्ञा मांगता है। मातासे स्वीकृति पाकर यणोवर पशुवलिका सख्त विरोध करता है । बह कहता है कि प्राणियाँ- की रक्षा करना क्षत्रियोका महान्‌ धर्म हैं। निरपराघ प्राणियोका वध करनेपर वह महान्‌ धर्म नष्ट हो जायेंगा। “य, शख्मवृत्तिः समरे रिपु, स्याद्‌ य कण्टकों वा निजमण्डलस्य । अख्राणि तत्रेव नृपा क्षिपन्ति न ठीन-कानींन-झुमाशयेप्ु ॥” राजागण उसीपर अस्त्र-पह्यार करते है जो शत्रु-सग्राममे सशस्त्र उपस्थित होता है, अथवा जो निज देशका कण्टक होता है। दुर्वहोपर, नीचोपर और सज्जनोपर नहीं । तो माता ! इस लोक और परलोक- सम्बन्धी आचारमें तत्वर रहते हुए में उन पशुओपर कैसे अस्त्र चलाऊँ ! बया आप भूल गयी कि कल ही हिरण्पगर्भ मन्‍्त्रीके पुत्र नीति बृहस्पतिने आपकी प्रेरणापर मुझे ये तीन इलोक पढाये थे, “न कुर्घीत स्वय हिंसा प्रवृत्ता च निवारयेत्‌ । जीवित बल्मारोग्य शश्रद्‌ वाम्उन्महींपति, ॥ यो दच्चाव काश्वन मेरु छृत्स्नां चापि चसुन्धराम । एकस्य जीवित दय्ात्‌ फठेन च न सम भवेत ॥ यथयात्मनि दशरीरस्य दुख नेच्छन्ति जन्तवः। तथा यदि परस्थापि न छु ख़ तेपु जायते ॥” “दीर्घ आयु, शारीरिक सामर्थ्य और आरोग्यको चाहनेवाले राजाको स्वय हिंसा नही करनो चाहिए, भोर यदि कोई अन्य करता हो तो उसको रोकना चाहिए । जो पुरुष मेदके बराबर स्वर्ण तथा समस्त पथ्यीका दान करता है मर एक जोवको जीवन दान करता है इन दो ४ नोंके फूल समान नहीं है। जैसे जीव अपने दारीरमें दुख नही चाहते वैसे ही यदि दूसरे जोवके दु खकी भो कामना न करें तो उन्हें कभी दु ख उठाना न पड़े |”? “ब्राह्मण और देवताओंके सन्तर्पण और शरीरकी पुष्टिके लिए छोकमें अन्य भी बहुत-से उत्तम उपाय हैं । तब सत्पुरुष पाप क्यों करेगा ? फिर मास तो रज और वीके सयोगमे उत्पन्न होता है, भत वह अपवि- प्रताका घर हैं। ऐसा मास भी यदि देवताओको पसन्द है तो हमें मासभक्षी व्याश्ोकी उपासना करनी चाहिए । भत्त देवता पशुओके उपहारसे प्रसन्न होते हैं, यह प्रवाद मिथ्या हैं । वनमें भो तलवारके द्वारा और गछा दवानेसे पशु मारे जाते हैं । ओर इनको देवियाँ यदि स्वय खा जाती हैं, तब तो उनसे व्याध्न हो विद्येष स्तुत्तिके योग्य हैं क्योकि वे स्वयं मारकर खा जाते हैं, देवताओको तरह दूसरॉसे मरवाकर नहीं खाते। यथार्थमें लोग देवताओंके वहानेसे स्वयं मद्य और मासका सेवन करते हैं। ऐसा करनेसे यदि दुर्गति न हो तो फिर दुर्गतिका दूसरा मार्ग कौन-सा है ? हु “यदि परमार्थसे हिंसा हो धर्म हैं तो शिकारकों पार्षद! हैं ? मास बनानेवाला घरसे बाहर क्यो रहता है, मासका त्याग क्यों वततलाया है ? तथा पुराणोमें ( महाभारतमें) ऐसा क्यो कहा है, “यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेप सारत | ! तावद्‌ चर्षसद्दस्ताणि पच्यन्ते पद्यघातका ॥?” “हैं युधिष्ठिर, पशुके शरीरमें जितने रोम होते हैं, पशुके घातक उतने हजार वर्ष तक नरकमें दुख भोगते हैं।” क्यों कहते हैं, मासको ढॉककर क्यो लाते सासका हुसरा नाम रावणशाक क्यों है ? तथा पर्वके दिनोंमें न




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now