आचार्य राजशेखर | Acharya Rajshekhar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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राजशेखर को आवायों ही श्रेणी में प्रतिष्शपित करने वाछा उनका महत्वपूर्ण ग्रन्थ 'काव्यमीमासा' है । यदि यह ग्रन्थ पूरा हो गया होता तो सस्कृत साहित्य का सागर होता । फिर भी जो माग उपहूब्ध है, उसका विशेष महत्व- है। इसमें राजशेखर ने सम्पूर्ण पूर्ववर्तों चित्तन का सार समृहीत कर दिया है। साहित्यिक क्षेत्र में शायद ही कोई भाग्यवान व्यक्ति राजशैसर के समान पर- वर्ती लेखको द्वारा उद्धृत किया गया हो । भाषा, व्याकरण, दर्शन भ्रादि समस्त बड्मबीन अद्भो पर राजशेखर का व्यापक अधिकार है। उनकी शैली अत्यन्त मधुर, प्रवाहमयी एवं प्रभावोत्यादक है । राजशेखर की प्रत्येक पूक्ति हृदय और बुद्धि दोनों को समात रूप से प्रभावित करती है । राजशेसर की एक बहुत बड़ी विशेषता उनकी राष्ट्र-भक्ति है। कालिदास के बाद अन्य कसी कब्रि या आचार्थ ने भारत के समस्त जनपदो, नदियों, पर्वतों तथा रहन-सहन, खान-पान वेष-भूषा और सस्कार आदि के प्रति न इतना प्रेम दिखाया श्रौर न उनका इतना बिशद वर्णन किया जितना राजशैखर ने किया है। राजशेख्वर के प्रन्य वस्तुतः सम्पूर्ण भारत के सास्क्ृतिक कोष है। इसलिए स्वय-पूर्ण, प्रात्म-तुप्ट एवं श्री और सरस्वती दोनो के कृपापात्र झ्राचायं कवि के चरणों मे यह पुष्प समर्पित करते हुए अपूर्व सुख का अनुभव हो रहा है। हिन्दी-टकण में कुछ वर्णों की कमी के कारण सस्हत उद्धरणों में सन्धि के कुछ वियमो, विशेषत परसवर्णता का पातन पूर्णत' नहीं हो सका है, इस कारण कई स्थानों पर 'पम्च' के लिए पच या अद्छू के लिए प्रक और जहाँ के लिए 'जहा' ज॑से भ्रयोग मिलेंगे । आशा है सुधी पाठक सस्कृत-मुद्रण की कठिनाई समझ कर तदर्थ उदारतापूर्वक क्षमा करेंगे । भगवान करे, डॉ श्यामा वर्मा की यह कृति राजशेखर की काव्य-माधुरी से जन-जन को आध्यायित कर साफल्य-छाभ करे और उनकी ही कृति का यह वाक्य सफल हो - “कुल्ला कीति अँमति सुकवे दिक्षु यायावरस्य' कल कट शी ने १५ जून, १९७१ साधक मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्य सकादमों




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