शोध पत्रिका | Shodh Patrika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कवियर रसनायक फें दाशंनिक विचार श्छ थे भध्रापिपा पिप दरस को तरसत खरी उदास 1 .. झन्तर तले श्रलि क्यों न हरि निकसि हरे यह घास (1६५) शद जद श ठप जो कहत ऊपी श्रतर हमारे कान्ह बोलत न. शाह रसनायक्र विकसि पो । छोह भरी घाजत ये तातो हूँ हमारी छाती सीतल करत क्यों न हि त निकसि के 11६६] उद्धव की ऐसी ध्रटपटी झौर सारहीन घातों को सुनकर गोपियो को उनपर सन्देह होने लगता है । इसीलिए वे क्रूद्ध होइर उनको लम्पठ धूलें निलउज सतदाला भौर घ्ातताई तक कह डालती हैं । वे कहुती हैं -- जोग से सियारे तुम फुबिजे दे भोग भाये निरयुन हमें लाये लम्पठ लखातु हो । रोक्त सरल पथ वेद थी पुरानन के ब्यापत श्पय पथ. निलजे सिहातु हो । घामें भों कहा हैं रसनायक बयां है. दाद चाह जो हमारे सो न चरचें घलातु हो । अपनी कहत धाप परि न लहत ऊधघी माधव मिलते की विधि फाहि ना बतातु हो ॥ र४)| श श्र ६ सतवारे भघुकर भरे नेकु न तो हिप ला । भूर समुक्ति पहुले लयो ध्रव थीं फंसी. व्याल (1२६) श्द श्द श्र घुर हीते दुख दन धलि भली सताई बांस | तिनक लनक सराप साौं मधुप भये तन स्याम |] है| रद है दर सुफलक सुव ध्रापी दधिर उपज सूप चुख दीन । छता छुडायो स्पाम सो ज्यों मांल्ी मधु घोन (1११६ ऐसे प्रशिप्ट घोर बड़ शब्द इसीलिए कहे गए हैं कि उद्धव फे यचन उनने धनस्य प्रममें बड़े याघक प्रतोत होते हैं ।




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