सिद्धान्तलेशसंग्रह | Siddhantaleshasangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1 २१ ] अंतः इसी पूर्वपक्षकी 'कृत्नप्रसक्तिनिरववत्वशब्दकोपो वा! इस सूत्रसे उत्थान करके “शुत्तेत्तु शब्दमूल्त्वातर इससे आपात्तः समाधान करके “आत्मनि चैवं विचित्राश्व हि! इस सूत्रसे सूत्रकारने विवर्तवादके आश्रयणसे द्वी समाधान किया है कि जैसे स्वप्नद्रष्ट जीवका उसके खवरूपके अनुपमर्दसे परिणाम न होनेपर भी अनेक प्रकारकी रथादि स्रष्टिका प्रादुर्भाव होता है, वैसे ही अह्मम भी स्वरूपके अनुपमर्दसे अनेकाकार सष्टिका भास होता है । वाचस्पत्तिमिश्रने भी कहा हे कि 'अनेन 3फुटितो मायावाद” अथात्‌ इससे मायावादका स्पष्टीकरण हो दी जाता है | यथपि सत्रकारका अभिमत गायावाद ( विवर्तवाद ) अत्यन्त स्पष्ट है, तथापि प्राकतन कर्मविशेषोंके प्रभावसे और सम्प्रदायशुद्ध शात्तीय परिज्ञान न होनेके कारण मनुप्यवभावोचित भ्रमका होना स्वाभाविक है; फ़िर भी उपक्रम आदि तात्ययनिश्चायक्र प्रमाणके अनुसार विज्ञ जनोंसे साम्प्रदायिक अध्ययन करनेपर उक्त अम अपने-आप मिट जाता है । कुछ लोगोंकी इस विपय में भी विप्रतिपत्ति है कि बहमसूत्रोमि अद्मजञानसे मोक्षरूप फल नहीं बतलाया गया है, अतः अद्वजिज्ञासा क्‍यों करनी चाहिए ? परन्तु यह भी अस्त है, क्योंकि उपक्रम और उपसंहारके सूत्रोंको देखनेसे यह शद्षा विढीन हो जाती है | नैसे--पहले उपक्रमका खतन्र है--'अथातो ब्रद्दा जिज्ञासा! | साधन चतुष्टय सम्पन्न पुरुषोंको त्र्मजिन्नासा क्‍यों करनी चाहिए? इस प्रकारकी शझ्ढाका समाधान उपसंहारके 'अनाबृत्तिः शब्दात्‌ अनावृत्तिः श्दात्‌! इस सूत्रसे स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि अग्रजिज्ञासा करनेसे उस पुरुषकी संसार आदृत्ति नहीं दोती दे, ऐसा 'न स पुनरावर्तते! इस श्रुतिसे ज्ञात द्ोता है । सूक्ष्म विचारसे इन सब पृर्वपक्षोका समाधन हो सकता है, अतः मायावाद श्रुति-त्मृति-सृत्न-समात है, इसमें कुछ भी सन्देद् नहीं करना चाहिए, और उसीका आचार्य गौडपाद आर आचार्य शक्षराचार्यनी द्वारा विस्तार किया गया है, जिससे कि साधारण मनुष्योक्ा उपकार दो | भगवदवतार श्रीआचार्यपादके गुखाग्वुजसे निकले हुए वचनोंके अनुसार थद्वेततत्वक प्रतिपादनक लिए भिन्न-मिन्न शैलियेसि जिन आचायोने सिद्धान्त- भेद बतछाये हैं, उनका तत-तत्‌ अम्थोंसे शब्दसंक्षेप द्वारा सप्बह् करके श्रीअषय्यदीक्षितने इस अन्यर्म संद्रद्ध किया है। इस अन्थकी उपयोगिता,




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