पउमणदिकओ जंबूदीव - पण्णत्ति - संगहो | Paumanamdikao Jambudiv-pannatti-sangaho

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Paumanamdikao Jambudiv-pannatti-sangaho by आ॰ ने॰ उपाध्ये - Aa. Ne. Upadhye

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तिछोयपण्णत्तिका गणित ए्‌ कहते हैं। यदि २ को तीसरी बार वर्गित संवर्गित किया जावे तो “श|१ अथवा (१५६)१०३ राशि प्रात होती है| सोचिये, कि यदि हम हम) का मान निकालने जावेंगे तो क्या आंत होगा १ पुनः अडच्छेदों तथा बर्गशलाकाओं के द्वार, इन संख्याप्रमाणों द्वारा प्ररूपित राद्षियों के अब्प- बहुत्व का विश्लेषण किया जीते था। अर्ड्च्छेद आधुनिक 108२है तथा वर्गशलाका आधुनिक 1028२1०8२ है। वीरसेन ने तो द्रध्यप्रमाणानुगम में इस विधि का उपयोग इस तरह किया है. कि बीजगणित के लिये अभूतपूर्व सामग्री का नरवीं दताब्दि में उपस्थित होना एक आश्रर्यपूर्ण बात प्रतीत होती है । जहां इस गणित के नियमों से नवीं सदी के जैनाचार्य पूर्ण दक्षता को प्रात हो चुके ये वहां यूरोप में जान नेषियर और वर्जी द्वारा इसके पुनः आविष्कार की पुनरादत्ति सन्नहवीं सदी में होती दिखाई देती है | रसा से १०० वषे पूर्व ही अवुयोगद्वारसत प॑ (२)१६ को वह संख्या प्ररूपित किया है जो २ के द्वारा 55 बार छेदी जा सके* । तिलोय-पण्णती के प्रथम अधिकार की १३२ र१र३ेर वीं गाथाओं से ही अर्द्धच्छेद के नियमों का परिचय हो जाता है | आगे सातवें महाधिकार में गाथा ६१३ के पश्चात्‌ सपरिवार घन्द्रों के बिम्बों का प्रमाण निकालने में, वीरसेन ने (?) अथवा यतिदुषभ ने (१) जो प्ररूपण दिया है वह जिस प्रकार हम सरल विधि से आधुनिकता छाकर प्रदर्शित करने में प्रयत्न कर सके हैं वह अति मनोरंजक और ऐतिहासिक महत्व की वस्तु है? । आगे श्रेदियों में समान्तर और गुणोत्तर भ्रेढियों के योग, विभिन्न रूप से प्रेटियों की संस्चना कर; उनके योग निकालकर, तथा विभिन्न लूप में अव्पत्रहुत्व का निरूपण, जैनाचार्यों की मौलिक वस्तु प्रतीत होती है। दूसरे महाधिकार में गाथा २७ से लेकर गाथा १०४ ते) नारक बिलों के विषय में उनके संकलन का विवरण महत्वपूर्ण है । इसी प्रकार पांचवें मद्दाधिकार में ४४ ५६३ से लेकर पृष्ठ ५९६ तक, द्वीप-समुद्रों के क्षेत्रककों का अव्पबहुए उनकी दक्षता का प्रमाण प्रतीक है। श्रेढियों को इतने विस्तृत रूप में वर्णन करने का श्रेय मैनाचार्यों को है। यदि तिलोय-पण्णती का यह्द विवरण पूर्वांचार्यों से लिया गया है तो आ्यभद्ट से पूर्व भ्रेदि संकलन सूत्रों का होना सिद्ध होता है। इस सम्बन्ध में यूनानी इतने आगे नहीं आये तथापि ऐतिहासिक अभिलेखों के आधार पर पायथेगोरियन वर्ग काल में भी प्राकृत संख्याओं के संकलन का प्रमाण मिलता है ) निकोमेशस (10100771%०108) ने प्रायः १०० ईस्वी पश्चात्‌ श्रेढियों के संकलन के विषय में,जों कुछ प्रदर्शित किया उसे देखकर आश्चर्य होता है कि जहाँ रोमन खेत गणकों ( 887717107807'68 ) को प्राकृत संख्याओं के घनों का योग निकालने के लिये सूत्र ज्ञात था, वहाँ उसने सूत्र प्ररूपणा नहीं को है । इस आविष्कार के सम्बन्ध में कहा गया है--““1 70990 ४७०० 0०७० त8007०ए९( 7०५9 #16 89116 7स्‍10/7107 7७७४) ज10 0पा7वे 00४ 96 छ70एण०शं॥०0 805 प्रश्नीए 879०0 फ़फ़ ए10091901प8, जी10 ए700901ए ए७1०7०४8 00 9 करापली 0क्काए6० धं16*, 7 यथोचित सामग्री के अभाव में इस विषय में और कुछ कहना उपडुत्त नहीं है। १ सरल स्पष्टीकरण के लिये, द्व| किसी संख्या ब॒ की अ बार वर्गित संवर्गित राशि का प्रतीक हैं । र्‌ ऊँ फि, ग)899 & 2. ऐ, शं089 9, 12 7०४४४ 1, पाठकों से हमारा अनुरोध है कि वे जान नेषियर के लाग्प्रिय् के आधारभूत ग्रंथ शु७ 0008070०४० से जैनाचार्यों की श्रेढियों पर आधारित अर््धच्छेद, वर्गशलाका आदि का समन्वय तथा सहसम्बन्ध अवलोकन करने का प्रयत्न करें। ३ जम्बूद्वीपप्रशति में मी इसकी झलक का उल्लेख मात्र है (११, ९६-१० ३ )। ३ छ6ण ए०, 1, ९, 16, रण, है, 9९. 515 & 816. ५ पि०छकि र०. 1. #. 109. ति, गं, २.




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