अध्यात्मरामायण | Adhyatmaramayan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
26 MB
कुल पष्ठ :
426
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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त्सानिध्यान्मया सुष्ट तसिन्नारोप्यतेड्बु थैः। | करती हूँ ॥३४॥ तो भी इनकी सन्निधिमान्नसे की हुई
प्रयोध्यानगरे जन्म रघुवंशेजतिनिर्भमले ॥३५॥ | री रचनाको बुद्धिहीन छोग इनमें आरोपित कर हेते हैं।
बे जि पं ३1 ०४ ' अतएव,अयोध्यापुरीमें अत्यन्त पवित्र रघुकुछमें इनंका जन्म
खामित्रसहायत्व॑ सखसरक्षण ततः | लेना ॥ ३५ ॥ फिर विश्वामित्रजीकी सहायता करना,
अहल्याशापशमनं चापभ्ी महेशितु ॥३६॥ [उनके यज्ञकी रक्षा करना, अहल्याकों शाप-
प्रत्पाणिग्रहणं॑ पश्चाह्लागंवस्य मदक्षय४;। | ठैफ करना, श्रीमहादेवजीके घनुषको तोड़ना ॥
जे जे । तत्प | गा
अयोध्यानगरे वासो मया द्वादशवार्षिक/॥३े७॥ | * * || तत्पश्चात् मेरा पाणिप्रहण करना, परशुराम
जीका गवं-खण्डन करना तथा बारह वषतक मेरे
रण्डकारण्यगसन॑ विराधवध एवं च। | साथ अयोध्यापुरीमें रहना ॥ ३७॥ फिर दण्डकारण्पमें
मायासारीचमरणं मायासीताहतिस्तथा ॥३८॥ जाना, विराघका वध करना, साया-छुगरूप मारीचका
जठायुषो मोक्षकाभः कृबस्थस्य तथैच च। मारा जाना, मायामयी सीताका हरा जाना॥ ३८ ॥
6 ; ५ | तदनन्तर जठायु और कबन्धका मुक्त होना, शबरीद्वारा
; त्सग्रीवीग समागमः है
शबया पएजन पश्चात्सुग्री 1 समागमः ॥३९ भगवानका पूजित होना और सुम्रीवसे मित्रता होना
व्रालिनश्र वध!) पश्चात्सीतान्वेषणम्रेव च । 1३९॥ फिर बाछिका वध करना, सीताजीकी
पेतुबन्धथ्व जलधो लंकायाथ निरोधनम् ॥४०॥ | खोज कराना, समुद्रका पुल बंधवाना और रु्भापुरीको
तुबन स्् |
पक ब्रेर लेना ॥ 9० ॥ तथा पुत्रोंके सहित दुरात्मा! रावण-
0आ कोल वधो बुद्ध सउत्रस्य इरास्मना | को युद्धमें मारना एवं विभीषणको लक्काका राज्य देकर
विभीषणे राज्यदान पृष्पकेण मया सह ॥४ १॥ | पुष्पक-विमानद्वारा मेरे साथ अयोध्या छौट आना,
अयोध्यागमन पश्ाद्राज्ये रामाभिषेचनस्। | 'र औररामजीका राज्यपदपर अभिषिक्त होना--
सर ज इत्यादि समस्त कर्म यथपि मेरे ही किये हुए हैं तो भी
एवमादीनि कर्माणि _सयैवाचरितान्यपि थे । अज्ञानी छोग उन्हें इन निर्विकार स्वोत्मा भगवान् रामसें
आरोपयन्ति रामेज्स्मिलिविंकारेडखिलात्मनि ४७२ | आरोपित करते हैं ॥ ४ १-४२ || ये राम तो ( वास्तव-
रामो न गच्छति न ॒तिष्ठति नानुशोच- : | में) न चलते हैं, न ठहरते हैं, न शोक करते हैं, न
ड्र्ते पक. जप । । इच्छा करते हैं, न त्यागते हैं और न कोई अन्य क्रिया
अब ल कस न फरोति किलित् ' ही करते हैं । ये आनन्दखरूप, अविचल और परिणाम-
आनन्दसूर्तिरचलः . परिणामहीनो हीन हैं, केवल मायाके गुणोंसे व्याप्त होनेके कारण ही
मायागुणानज्ुगतो हि तथा विभाति ॥४ ३॥ , ये बैसे प्रतीत होते हैं ॥ ४३ ॥
५ ह न्द्रजीने सम्मुख पुख खड़े हुए पवन-
) खय्य प्राह हनूमन्त पखिितस् | , तदनन्तर शऔऔररामच हु म्मु पड
ही। ओधा जो कि गा हे | पुन्न हलुमानसे खय्य कहा---“मैं तुम्हें आत्मा, अनात्मा
भ्रृणु तत्व प्रवक्ष्यामि ह्ात्मानात्मपरात्मनाम् ४४ | और परात्माका तत्त्व बताता हूँ, (सावधान होकर) सुनो
| ॥ 9४ ॥ जछाशयमें आकाशके तीन भेद स्पष्ट
आकाशस्य यथां मेदखिविधों दृश्यते महान् | | दिखायी देते हैं-एक महाकाश॥ दूसरा जराव-
ञे प्ि च्छिन आकाश' और तीसरा प्रतिबिम्बाकाश । जैसे
जलाशये महाकाशस्तदवच्छिन्न एव हिं। आकाशके ये तीन बड़े-बड़े भेद दिखायी देते हैं
पतिविम्बारज्यमपरं दृश्यते त्रिविधं नभ 8५) ॥२७५॥ उसी प्रकार चेतन भी तीन प्रकारका
१, जो सर्वेश्न व्याप्त है। २, जो केघल जछाशयमें दी परिमित है। ३े। जो जछमें प्रतिबिग्बित है।
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