रंगायन | Rangayan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
37 MB
कुल पष्ठ :
164
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)इसीलिये उनकी भाषा से उनकी प्राचीनता का अनुमान करने का विचार ही
निर्मूल है। सच तो यह है कि भाषा नहीं बदले तो गीत मत हो जाता है| छिंगल
क्योंकि बोलचाल की भाषा नहीं है इसलिये हमें छिंगल के गीत भी आज नहीं
मिलते |
इसी तरह, सामरजी का कहना यह भी है कि किसी लोकगीत को सुनकर हम
इतिहास या अतीत का चित्र अंकित नहीं कर सकते ।* लोकगीतों के सामाजिक
विवेचकों को यह मत अग्राह्य हो सकता है क्योंकि कई क्षेत्रीय महत्त्व के
ऐतिहासिक व्यक्तियों से जुड़े हुए गीतों का शुमार प्राय: लोकगोीतों में ही किया
जाता रहा है, लेकिन सामरजी इस दृष्टिकोण के हामी नडीं हैं | वे इन गीतों को
लोकगीतों से पृथक ऐतिहासिक- धार्मिक गीतों की श्रेणी में रखते हैं। उनका
कहना है कि -
किसी ऐतिहासिक तथा धार्मिक व्यक्ति-विशेष के गीतों के सैंकड़ों
संकलन हमारे साहित्य में हुए हैं जिनसे तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक
तथा राजनैतिक जीवन का भली प्रकार अनुमान लगाया जा सकता है।
राजस्थान का सच्चा इतिहास तो इन्हीं वीरगीतों तथा काव्य- ग्रन्थों से
लिखा गया है।
परन्तु सामरजी के अनुसार न तो इन्हें लोकगीत कहा जा सकता है और न ही यह
बात लोकगीतों पर लागू की जा सकती है। लेकिन इस कोटि के जिन गीतों की
भाषा समय के साथ बदलती गयी है, उनके लिये क्या कहा जायगा, इस पर
सामरजी ने विचार नहीं किया है। जो लोकगीत सौ वर्ष पहले के लिखे हुए
मिलते हैं, उनके वर्तमान संस्करण से उनकी तुलना करके संगीत या समाज-
विज्ञान के महत्त्व की कुछ बातें बरामद की जा सकती हैं, इससे वे इंकार नहीं
करते, परन्तु यह एक भिन्न जात है | ऐतिहासिक गीत या वीर-गीत, लोकगीत
नहीं हैं ।
इस प्रकार, एक ओर लोकगीतों से जुड़े विभिन्न प्रश्नों और विवादास्पद मुद्दों पर
सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दृष्टि से विचार करके और दूसरी ओर, उनकी
संरचना पर सांगीतिक दृष्टि से विशेष विचार करके उनमें अकूत स्वर-सौचन्दर्य
और अनुपम ध्वनि-वैशिष्ट्य के साथ लय, ताल, राग आदि का अस्तित्व दिखाकर
उन्होंने शास्त्र के बरक्स लोक-संगीत की स्वतन्त्र सत्ता ही अनुष्ठित नहीं की है,
लोकगीत का अपना शास्त्र भी रच दिया है।
२६ रंगायन
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