लोक - विभाग | Lok - Vibhag

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Lok - Vibhag by बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री - Balchandra Siddhant-Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना [२५ है । इससे त्रिलोकसारके कर्ताके सामने तिलोयपण्णत्ती रही है व उसका उन्होने पर्याप्त उपयोग भी किया है, यह निश्चित प्रतीत होता है । जबूदीवपण्णत्तीमे ऐसी कितनी ही गाथाये है जो त्रिलोकसारमे उसी रूपसे या कुछ थोडे-से परिवर्तित रूपसे उपलब्ध होती है* । उसकी रचनाशैली कुछ शिथिल भी प्रतीत होती है । इससे अनुमान होता है कि उसकी रचना त्रिलोकसारके पण्चात्‌ हुई है। ग्न्‍्थके अन्‍्तमे ग्रन्थकारने यह सकेत भी किया है कि जवृद्वीपसे सम्बद्ध अर्थका विवेचन प्रथमत जिनेन्द्रने और तत्पश्चात्‌ गणधर देवने किया है। फिर आचार्यपरम्परासे प्राप्त उस ग्रन्थार्थथा उपसहार करके मैंने उसे सक्षेपमे लिखा है *। इस आवचार्यपरम्परासे कदाचित्‌ उत्तका अभिप्राय आचार्य यतिवुषभादिका रहा हो तो यह असम्भव नही कहा जा सकता है । कुछ भी हो उसकी रचना विक्रमकी ११वीं जताब्दिके पूवेमे हुई प्रतीत नही होती । अब चूकि लोकविभाग (पृ ६७) मे ' उक्त च जम्बूद्ीपप्रज्ञप्ती' इस प्रकार नामनिर्देशपूर्वंक उसकी एक गाथा उद्धृत की गई है, अत एवं उसकी रचना जबूदीवपण्णत्तीके पश्चात्‌ हुई है, इसमे किसी प्रकारका सन्देह नही रहता | अब यह देखना है कि वह जबूदीव- पण्णत्तीके कितने समय वाद 'रचा जा सकता है। इसके लिये हमने अन्य भ्रन्थोमे उसके उद्धरणोके खोजनेका प्रयत्न किया, परन्तु वे हमे कही भी उपलब्ध नहीं हो सके। श्री श्रुतसागर सूरिने अपनी तत्त्वार्थवृत्तिमे हरिवशपुराण और त्रिकोकसार आदिके साथ एक अन्य भौगोलिक ग्रन्थके अनेको इलोक उद्धृत किये है । परल्तु उन्होने कही भी प्रस्तुत ग्रन्थके किसी इलोकको उद्धृत नही किया* । कहा नहीं जा सकता कि उस समय तक प्रस्तुत ग्रन्थकी रचना ही नही हुई थी, या वह्‌ उनके सामने नही रहा, अथवा उसके इलोकोको उद्धृत करना उन्हे अभीष्ट नही रहा। ८. क्या सर्वनन्दिक्ृत कोई लोऋषिभाग रहा हैँ ? प्रस्तुत ग्रन्थके अच्तमे (११, ५२-५३) यह सूचना की गई है कि पूर्व समयमे पाण- राष्ट्रके अन्तगेंत पाटलिक नामके ग्राममे सर्वननन्‍्दी मुनिने शास्त्र लिखा था, जो काचीके राजा सिहवमके २२वे वर्षमे शक सवत्‌ ३८० (वि स ५१५) मे पूर्ण हुआ । परल्तु यहाँ यह निर्देश तही किया गया है कि उस शास्त्रका नाम क्‍या था तथा वह सस्क्ृत अथवा प्राकृत भाषामेसे किस भाषासे लिखा गया था । आज वह ग्रन्थ उपलब्ध नही दिखता । जैसा कि इस प्रशस्तिमे निर्दिष्ट है, उससे उक्त शास्त्रका नाम “लोकविभाग ' ही रहा हो, ऐसा सिद्ध नही होता । सम्भव है उसका कुछ अन्य ही नाम रहा हो और वह कदाचित्‌ सस्कृतमे रचा गया हो। देखिये जवूदीवपण्णत्तीकी प्रस्तावना पृ १२९८-२९ जबूदीवपण्णत्ती १३, १३५-१४२ तव्‌ ३-१० ४ त॒व्‌ ३-६, ३८, ४-१३, १५ त व्‌ ३-१० (सा घ २-६८), ४-१२ (ज दी प १२-९३) देखिये त्चृ के ९ हे; रे। ५६ ६९ १०, २७, ४-२४, >> जय >> जी




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