बृहदारण्यक वर्तिकासारकी | Brahdaranykavartikasar Volume - I

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Brahdaranykavartikasar Volume - I by पं श्रीकृष्ण पंत - Pt. Shree Krishna Pant

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about पं श्रीकृष्ण पंत - Pt. Shree Krishna Pant

Add Infomation AboutPt. Shree Krishna Pant

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
( २ ) शोक पूर्वोक्त रीतिसि सभी उपनिपत्‌ त्ह्मश्ञानश्राप्तिके साधन हैं, पर बृहदारण्यकोपनिपत्‌का स्थान अध्यात्मइष्टिसे बहुत ऊंचा है। श्रीमुरेधराचायजीने बृहदारण्यकशब्दका निर्वेचन करते हुए कहा है-- “अरण्याध्ययनाच्चैतदारण्यकमितीयते | बृहत्त्वादू अन्थतो5र्थाच्च बृहदारण्यक मतस्‌ ॥! अन्य उपनिषदोंसे विपुलाकार होनेके कारण यह अन्थतः बृहत्‌ है और अखण्ड ब्रह्मका प्रतिपादक होनेके कारण इसमें त्रगज्ञानके अन्तरह्व और वहिरञ्न सैकड़ों साधनोंका वर्णन है, इसलिए यह अर्ग्रतः भी इहत्‌ हे एवं अरण्यमें नियम- पूषिक इसका अध्ययन होनेके कारण इसे बृहदारण्यक कहते हैं 1 । बृहद्वारण्यकोपनिपतपर भगवान्‌ श्रीमद्भराचायजीने विशद साप्यका निर्मीणकर मुमुक्षुओंका जो उपकार किया, वह वर्णनातीत है। भगवान्‌ श्रीमद्राचार्यजीके बूहदारण्यकीपनिषद्माष्यकी निरवयता और महत्ताकी श्रीमुरेधवराचायजीने इस प्रकार मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की है-- - थं काप्योपनिषच्छलेन सक्रलाम्नाया्रसशोधिनीम, सब्नक्रुगुरवोड्नुबृचगुरवी बृत्ति सतां चान्तये । अथीविप्करण कुतार्किकक्ृताशड्ासमुच्छित्तये तत्या न्यायसमाश्रितिव वचसा प्रक्रम्यते लेशतः ॥! उक्त विधद भाष्याथमं भी मन्दमति और अतीक्ष्णति छोगोकी विपरीत बुद्धि हो सकती है। उक्त बुद्धिका निरस करनेके लिए भाष्यके अभ्रविस्तारकी अपेक्षा हुदं। उस जआवश्यकताकी पूर्तिके लिए श्रीसुरेश्वराचार्यजीने भाष्यमें जिस विपयका सूक््महूपसे प्रतिपादन हुआ था, जिसका नहीं हुआ था और जो मन्दमतियोंको त्रिविधस्य स्र्थस्य निशव्दोडपि विशेषणम्‌। उपनीयेयमात्मानं. ब्रह्यापास्तदय यतः ॥ निहन्त्यविद्या ते च तस्मादुपनिषद्‌ भवेत ।- प्शनत्तिहेतन्निरकेपांस्तन्मूलोच्छेद्कत्वत, ॥ यतोअ्वसादयेद्‌ विद्या तस्मादुपनिपद भजेत्‌। थथोक्तविद्याहेतुत्वादू अन्योषपि तदसेदतः ॥ कि भवेदुपनिपज्ञामा छाइढु जीवन यथा ? 1 उपनिपदन्तरेश्यो अन्याधिकयादू अन्यतोंडस्प वृहत्त्ममर्थतस्त्वखग्डस्य ब्रह्मगोध्त्र प्रतिपाथ- त्वात्‌ तज्ज्ञानहेतुत्ता चाइन्तरहवहिरज्ञागा भूयसा प्रतिपादनात्‌ , अतो वृदत्त्वादारण्यकलान वृह्दारुपकम्‌ । ( देखिये आनन्दगिरिक्ृतश्ञाल्मप्रकाणिका व्याख्या ) न्‍




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now