रजतरंगिणी | Rajtragini

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Rajtragini by रामतेज शास्त्री - Ramtej Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हे प्रथमस्तरज्ञ; | श्छ - तें वारयितुमाहृता भ्ृत्या नासन्‍्गृहे यदा। शिक्षानमझुमझीरा सा तदाअ्वावरत्खयम्‌ ॥२४७॥ एकहस्तध्वतावेगसस्तशीर्षपाशुकान्त्या._. | तया पाणिसरोजैन घावित्वा सोज्थ ताडितः ॥२४८॥ भोज्यमुत्सृज्य यातर्य फणिखीस्पशतस्ततः | सौवर्णी पाणिमुद्राह्लें. तुरगस्योदपद्रत ॥२४९॥ तस्मिन्काले नरो राजा चारेस्तां चारुकोचनाम्‌ । श्रुत्ला द्विजवधूं तसथी प्रागेबाडुरितस्मर! ॥२५०॥ तस्यथ धावन्तमुन्मत्तमन्तःकरणवारणम्‌ | वलान्नियमितु नासीदपवादमयाडुशः ॥२५१॥ ' तस्मिनुद्वत्तरागाभिवित्धदें भूपतेः पुनः | उबाह हयवत्तान्तो इप्वातालुकारिताम्‌ ॥२७२॥ चक्रे.. पर्यस्तमर्यादः . सरलाहुलिशोमिना | स काश्वनकराड्नेन शशाइेनेव वारिधिः ॥२५श॥ व्रीडानिगडनिर्मक्तो .. दूतैराकृतशंसिभिः । तामुपच्छन्दयन्सोड्थ. सुन्दरीम॒दवेजयत्‌ ॥२५४॥ सवोपायैरसाध्यां. च 'विप्रस्तत्पतिरप्यसी । तेनायाच्यत लुब्धेन रागान्धानां कुतस्रपा ॥२५७॥ अथ निर्भत्सनां तस्मादपि आप्तवताउसकृत्‌ | हठेन हतु तां राजा समादिश्यन्त सेनिकाः ॥२५६॥ तैगृहाग्रे कृतास्कन्दों निर्गत्यान्येन वर्त्मना | त्राणार्थी नागभवनं सजानिः प्राविद्वद्‌द्धिजः ॥२८७॥ ताभ्यामम्येत्य इचान्ते ततस्तस्मिन्निवेदिते | क्रोधान्धः सरसस्तस्मादृज्जगाम फणीश्वर ॥२७८॥ उद्जज्जिह्जीमूतजनितध्वान्तसंततिः | स घोराशनिवर्षण. ददाह सपुरं. नृपषम ॥२७५॥ दग्धप्राण्यड्रविगलद्वसास क्लेहवाहिनी । मयूरचन्द्रकाडेच... बितरता समपथ्यत ॥२६०॥ शरणाय * श्रविष्टानां भयाच्रक्रधरान्तिकम्‌ । सुहूर्तान्निरद्द्यन्त सहस्राणि. शरीरिणाम्‌ ॥२६१॥ मधुकैटमयोमेंद:ः आगूवोरिव. चक्रिणम्‌ । दुघानां आणिनां तत्तत्तदा सर्वाज्ञमस्पृशत्‌ ॥२६२॥ ॥ २४६ ॥ उसे हटानेकी मकानमें कोई नौकर उपस्थित नहीं था। इस कारण नूपुरोंका झनकार करती हुई वह स्वय॑ उसे हटानेके लिये अद्वालिकासे नीचे उतरी ॥ २४७॥ तनपरसे गिरता हुआ उत्तरीय वस्नर एक हाथसे सेंभालकर उस नागकन्याने जल्दीसे ढौड़कर उस घोड़ेको दूसरे हाथसे मारा |२४८॥ इससे धान्य खाता छोड़कर भागते हुए उस अश्वकी पीठपर्‌ नाग-कन्याके हाथका रपश होते ही सुबर्णमणय हस्तनचिह्ठ उमर आया ॥ २४५,॥ उन्हीं दिनों बहॉके राजा नरने भी अपने गुप्तचरों द्वारा उस सुनयनी 'हविजमार्याके सोन्द्येकी प्रशंसा सुती थी। इससे उस राजाके हृदयमें कामका उदय हो चुका था ॥ २५० ॥ किन्तु छोकापवाद-जनित भयरूपी अंकुश निर्भय भावसे भागते हुए उस राजाके अन्तःकरणरूपी मत्तमजराजपर अपना अधिकार जमानेमे अस- समर्थ था ॥ २५१ ॥ तभी उस राजाके हृदयमें धधकती हुईं कामाभिकों दूनी करनेके लिये चह अश्ववृत्तान्त चायुके .. जैसा सहायक वन गया ॥ २५२ ॥ उन सुन्दर अंगुल्यिोंसे घोड़ेकी पीठपर सुशोमित उस स्वर्णमय हस्त चिहने चन्द्रोदयसे क्षुब्ध समुद्रके समान राजाकों मय्योदासे बाहर कर दिया॥ २५३॥ तदनुसार छज्ञारूपी जंजीर तोड़कर वह राजा इगितज्ञ दूतोंके द्वारा उस नाग-कन्याको अपनी ओर आक्ृष्ट करनके लिये अनेकद्ाः अयत्न करता हुआ उसे सताने रगा ॥ २५४॥ इन सभी उपायों द्वारा उसकी आप्तिको असंभव समझकर उस राजाने लज्जाको तिछाज्छि दे दी और उसके पतिके सम्मुख अपनी इच्छा अकट की। क्योंकि कामान्धोंको कहीं रुज्जा होती है ? || २०० || इसपर ब्राह्मणने उसे बुरी तरह फटकार दिया। इस प्रकार उसके द्वारा अनेकञ्- तिरस्कृत होकर राजाने उसे बलात्‌ प्राप्त करनकी इच्छासे अपनी सेना द्वारा उसका घर चारों ओरसे घेर लिया ॥, २५६ ॥ राजाकी सेना द्वारा अपना घर घिरा देखकर बह ब्राह्मण किसी रास्ते निकलकर अपनी रक्षाकी इच्छासे नागराजके पास गया )| २५७ ॥ उस सपत्नीक ब्राह्मणको आते देख और उसके मुखसे सब वृत्तान्त सुना तो छुड्ध होकर नागराज सुश्रवा सरोवरसे वाहर निकछा ओर सेघ-गजनके समान फुफकारते हुए उसने ओलडे बड़े-बड़े पत्थेर वरसाकर उस राजाके समेत सारा नगर तहस-नहूस कर दिया।॥ २५८ ॥ २०० ॥| उसकी विया- पिसे जके हुए भाणियोंके शरीरसे निकले रक्त, मज्या, वसा तथा सांसादि बहाती हुई बितस्ता लदी मोरपंरूके ससान रंगीन दिखाई देते छगी ॥ २६० ॥ उस समय अपने आणोंक्री रक्षाके लिये भगवान चक्रपरके मन्दिस्में छिपे हुए हजारों मनुष्य उसके भीतर दी क्षण भरमें जल भरे ॥ २६१ ॥ सृष्टिके आरम्भसें जैसे भगवान, विण्ण॒की




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