वैदिक - स्वर - समीक्षा | Vaidik Swar Samiksha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राक-कथन वर्तमान में वेदां की ११ शाखाएं उपलब्ध हैं। जिनमें से शाकल- शाखा प्रसिद्ध कनवेद है। माध्यन्दिनी शाखा उत्तर-मारत में तथा तत्तिरीय-शास्रा दक्षिण-मारत में प्रसिद्ध यजुर्वेद है। कौथुम-शाखरा प्रसिद्ध सामवेद और शौनक-शास्रा प्रसिद्ध अथर्ववेद है। इन्हाँ वेदों का अब यत्र तत्र पठन-पाठन का सम्प्रदाय है । पडज्नी वेदोडथ्येयो शेयश्च' इस ऑयम के द्वारा विधान किया गया है कि छः अन्जों (शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, घन्द, ज्योतिष) के सहित वेदों के शुद्ध पाठ का अम्यास एवं ज्ञान का लाम करनों चाहिए। बिना अर्थ-ज्ञान के केवल पाठ को ही अच्छा नहीं समझा गया। यही मावना “यदघीतमविज्ञा्त॑ निगदेनैव शब्द्ते | अनग्गाविव ,, शुध्कोधी न तज्ज्लति कर्दिचित्‌” (> जो पढ़ा और जाना नहीं, केवल पाठमात्र से उच्चारण किया जाता है, उसका उसी मूर्ति प्रकाश नहीं होता, जेसे अग्नि-रहित स्थान में रखा हुआ सूखी लकड़ियों का ढ़ैर नहीं जलता) इस आप्त वचन में पाई जाती है । वेदों में पद-पदार्थों के आधार पर हो उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों की व्यवस्था पाई जाती है और उन्हें हृदयंगम कराने के लिए हो शास्रा-मेद से अक्षरों के ऊपर-नीचे भिन्‍न-भिन्‍न रेखाओं का संकेत मिलता है। इन स्वर-चिद्दा का ज्ञान हुए विना वैदों का अर्थ- ज्ञान नहीं हो सकता। शाखा-मेद सै प्रत्येक वेद के स्वर-चिह्मों का दिग्दर्शन कराते ह्वए वैद-पाठियों लथा वेदार्थ-बोध के निमित्त वेदिक-स्वरों के जिज्ञासुओं के लाभ के लिए यह 'वैदिक स्वर-समीक्षा” नाम की पुस्तक अधिकारी पाठकों के सम्मुस प्रस्तुत करते हुए हमें विशेष प्रसन्‍नता होती है। इसे हमारे संस्थान के विशिष्ट विद्वान्‌ पण्डित ग्रमरनाथशास्त्री व्याकरणाचार्य ने प्रातिश्ञा्य शिक्षा, निसक्‍त तथा पाणिनीय-व्याकरण केमहामाष्य, काशिका, सिद्धान्तकौमुदी आदि प्रमुख ग्रन्थों के वर्षो निरन्तर आलोडन के पश्चात्‌ लिखा है + यह पुस्तक दस अध्यायों में लिखी गईं है। प्रथम अध्याय मैं उपलब्ध वैद-राशि तथा वैदिक-स्वर का महत्त्व बताया गया है 1 द्वितीय [कर]




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