कुवलयानन्द | Kuvalayanand

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Kuvalayanand by कुवलया नन्द - Kuvalaya Nand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उपमालड्टार डे च पूर्णपमेत्युच्यते | हसी कीति स्वर्गज्ञावगाहनमिवशब्दश्चेत्येतेषामुपमानोप- मेयसाधारणधर्मोपमाबाचकाना चतुणोामप्युपादानात्‌ | यथा वा-- गुणदोषो बुधो गृहन्निन्द्च्वेडाविवेश्वर । शिरसा खछाघते पूबे पर कण्ठे नियच्छति ॥॥ अन्न यद्यप्युपमानोपमेययोनेंक साधारणो वर्म | उपमाने ईश्वरे चन्द्रगर- लयोग्रेहणमुपादान तयोमध्ये पूर्वेस्य चन्द्रस्य शिरसा खयाघन वहनसुत्तरस्य गर- लस्य कण्ठे नियमन सस्थापनम्‌ , उपभेये बुघे गुणदोषयोग्रहण ज्ञान तयोमध्ये पूवेस्थ गुणस्य शिरसा ह्ाघन शिर कम्पेनामिनन्दनमुत्तरस्य दोषस्य कण्ठे नियमन कण्ठादुपरि वाचानुद्धाटनमिति भेदात्‌ | तथापि चन्द्रगरलयोगुणदोष- योश्व बिस्‍्बग्रतिबिम्बभावेनाभेदादुपादानज्ञानादीना गृहन्नित्येकशब्दोपादानेना-_ सादश्य स्पष्ट वाच्य रूप में प्रकट हो, व्यग्यरूप मे अतीयमान नहीं । साहश्य के व्यग्यरूप में प्रतीयमान होने पर उपमा अलड्डार नहीं होगा, वहाँ या तो अलड्ठगरान्तर की प्राप्ति होगी या फिर ध्वनिकाव्य होगा। उपमा का उदाहरण ऊपर की कारिका मे 'हसीव _' आदि उत्तराध में उपन्यस्त किया गयाहै। उपयुक्त उदाहरण में पूर्णोपमा है। पूर्णोपमा मे उपमा के चारों तत्व, उपमान, उपमेय, साधारणधर्मं तथा वाचक दाब्द का प्रयोग किया जाता है। यहाँ सी हसी ( उपमान ), कीर्ति ( उपमेय ), स्वर्गंगावगाहन ( साधारणधर्म ) तथा इव शब्द ( वाचक ) इन चार्रो का ही उपादान किया गया है। अथवा यह दूसरा झंदाहरण ली जिये-- जिस प्रकार महादेव चन्द्रमा तथा विष दोनों का अहण कर एक को सिर पर धारण करते हैं तथा अन्य को कण्ठ में घारण करते हैं, वेसे ही विद्वान व्यक्ति भी गुण तथा दोष दोनों का ग्रहण कर ( दूसरों के ) गुण की सिर हिलाकर अशसा करता है और (दूसरों के) दोष को छिपाकर कण्ठ में धारण कर लेता है। यहाँ उपयुक्त उदाहरण की तरह उपमान तथा उपमेय का साधारण धर्म एक-ही नहीं है। वहाँ हसी और कीर्ति दोनों में 'स्वंगावगाहनक्षमत्वः घटित होता है, पर यहा शहझ्ूर के साथ “चन्द्र-विष-वहनकज्षमत्व? हे, तो बुध? के साथ 'गुणदोषज्ञानक्ञमत्वः । इस प्रकार उपमानरूप ईश्वर में चन्द्र तथा विष का अहण घटित होता है, वे चन्द्र का सिर से श्छाघन करते हैं अर्थात्‌ उसे सिर पर घारण करते हैं और विष को कण्ठ में नियमित करते हैं अर्थात्‌ उसे क्ण्ठ में स्थापित करते हैं, जब कि विद्वान्‌ या ज्ञानी व्यक्ति गुण-दोष का अहण कर्थात्‌ ज्ञान भाप्त करता है, वह प्रथम वस्तु अर्थात्‌ गुण की सिर से अशसा करता है, सिर हिलाकर गुण का अभिनन्दन करता है, जब कि दूसरे पदार्थ--दूसरों के दोष का कण्ठ में नियमन करता है, अर्थात्‌ वाणी से किसी के दोष का उद्घाटन नहीं करता। इस स्थल पर यह स्पष्ट है कि उपसान का साधारणघधर्म तथा उपमेय का साधारणधघर्म एक न होकर भिन्न भिन्न है। इस भेद के होते हुए भी कवि ने चन्द्र-विष तथा गुण-दोष का एक स्राथ प्रयोग इसलिए किया है कि उनमें परस्पर बिंबप्रतिबिबभाव विद्यमान है और बिंब- प्रतिबिंबभाव होने के कारण उनमें अभेद्‌ स्थापित हो जाता है। इसके साथ ही शिव के द्वारा चन्द्रमा तथा विष के उपादान तथा (विद्वान्‌ के ह्वारा गुण एवं दोष के ज्ञान दोनों के किए. कवि ने एक ही शब्द “गहन? का प्रयोग कर उन भिन्न पदार्थों में भी अमेद




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