अपराधिनी | Apradhini

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पाठक, विलसित कौतुक के सुख से ही सुखी नही होता, यह मे जानती हू । कहानीकार का स्पापत्य चातुर्य ही उसे नहीं मोहता, यह शी मुन्ते पता है। इतना ही जानती हू, कि जब पाल्न-पात्रियो के सहस--आधात-सघात, स्वय पाठक एव रचनाकार के आधात-सघात वन उच्ते हैं, तब ही रचनाकार को लगता है, उसने व्यर्थ ही परिश्रम नहीं किया, सफलता का चरम बिन्दु उसने भले ही न पाया हो माशिक सफलता का स्पर्श, उसने कर ही लिया है । मैं नहीं कह सकती कि मुन्ते कहा तक सफलता मिल सकी है, किन्तु जब थे सस्मरण रिपोर्त्तज रूप में “्वर्मयुग' एव “साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में छप रहे थे, स्नेही पाठकों के पत्नो के संलाव मे मैं डूव गई थी, गौर इस डूबने मे भी कसा आनन्द है । किसीने, तीस वर्ष पूर्व की मध्य प्रदेश की उस पत्ति- हवा मालिन को पहचान रिया था । “यह टीकमगढ़ की वही मालिन है ना ?” उसने लिखा था, “जब अपार भीड के साथ इस मालिन को हमारे घर की सडक से ले जाया गया, तब मैंने भी इसे देखा था । वोरे में वद इसके पति के लाश के टुकड़े भी, इसके साथ-साथ चल रहे थे ।”” हा यह वही मालिन थी, रुगण पति को शौच के वहाने वाहर ले जाकर, इसने अपने प्रेमी के गडासे की सहायता से उसे क्षण-भर से रोग-मुक्त कर दिया था, फिर दोनो ने छाश को गाडकर मिट्टी से टाप दिया । वहुत दिनों वाद वर्वा की वेगवती धारा मिट्टी वह्ठा ले गई और ककालू का कटा हाथ, स्वय ही अपनी हृत्या का सशक्त गवाह वना ओर ऊपर मिकल लाया । मेरे किसी दूसरे पाठक ने जानकी को भी पहचान ल्या था, पहचाना ही नही, उसने तो उसे वहुत निकट से देखा-परखा था । ७




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