श्रीश्रीविष्णुपुराण | Shrishrivishnupuran

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अ० ४ ] प्रथम अंश २३ तोयान्तःखां पहीं ज्ञात्वा जगत्येकाणवीकृते । सम्पूू्ण जगत जल्मय हो रहा था । इसलिये अनुमानात्तदुद्धारं कतुंकामः प्रजापति; ॥ ७॥ | प्रजापति ब्ह्माजीने अनुभानसे प्रथ्रिबीको जरके भीतर कस्लितन ये | जान उसे बाहर निकालनेकी इच्छासे एक दूसरा अकरोत्खतनूमन्यां कल्पादिषु यथा पुरा। | शरीर धारण किया । उन्होंने पूत्न-कल्पोंके आदियें जैसे मत्स्यकूमोदिकां तदद्वाराहं॑ वपुराखितः ॥ ८ ॥ | मत्स्य, कूर्म आदि रूप धारण किये थे वैसे ही इस वेदयज्ञमयं रूपमशेषजगतः. खितौ । वाराह कल्पके आरम्भमें देवयज्ञमय वाराह् शरीर ग्रहण खिंत सिराल्यॉ सी: हा किया और सम्पूर्ण जगत्‌की स्थितिमें तत्पर द्वो सबके 0 कि है ख काश अजापति॥। | _दात्मा और अविचलछ रूप वे परमात्वा प्रजापति जनलोकगतेस्सिद्धस्सनकाधर भिष्ठदुतत1 ै। ब्रक्माजी, जो पृथित्रीको धारण करनेवाले और अपने ही प्रवविश तदा तोयमात्माधारों घराधरः॥१०॥ अश्रेयसे खत हैं, जन-छोकस्थित सनकादि रिद्धेशरों- से स्तुति किये जाते हुए जलमें प्रविष्ट हुए ॥७-१०॥ क्ष्यतंत ग है 3५ निरीक्ष्य त॑ तदा देवी पातालतलमागतम्‌ 1 तब॒ उन्हें पाताललोकमें आये देख देवी वसुन्धरा तुश्ाव प्रणता भूत्वा भक्तिनम्रा वसुन्धरा ॥११॥ अति भक्तिविनम्र हो उनकी स्तुति करने छगी ॥ ११ ॥ जलता प्ृथिवी बोली-हे शाह्न, चक्र, गदा, पद्म धारण नमस्ते पुण्डरीकाक्ष शझ्डूचक्रादाधर। करनेवाले कमलनयन भगवन्‌ ! आपको नमस्कार है | + सत्तो पूर्व | आज आप इस पातालतछसे मेरा उद्धार कीजिये । पूत मामुद्धरासादय त्वं त्वत्तो5ह पूर्वेम्त्थिता ॥१२॥ | कषलमें आपहीसे मैं उत्पन्न हुई थी | १२ || हे जनाद॑न ' त्वयाहमुद्ध्ृता पूर्व त्वन्मयाह जनादन | पहले भी आपहीने मेरा उद्धार किया था | और है | प्रभो ! मेरे तथा आकाशादि अन्य सब भूतोंके भी तथान्यानि च भूतानि गगनादीन्यशेषतः ॥१३॥ | आप ही उपादान-कारण हैं ॥ १३॥ हे परमात्मखरूप ! | आपको नमस्कार है। हे पुरुषात्मन्‌ ! आपको नमस्कार ' हैं | हे प्रधान ( कारण ) और व्यक्त (कार्य) रूप! प्रधानव्यक्तमूताय. कालभूताय ते नमः ॥१४॥ | आपको नमस्कार है | हे काल्खरूप ! आपको ' बारंबार नमस्कार है ॥ १४ ॥ है प्रभो ! जगतकी | सृष्टि आदिके लिये ब्रह्मा, विष्णु और रुद्वरूप धारण सगादिषु प्रभो ब्रह्मविष्णुरुद्रात्मरूपध्ृक।१५॥ करनेवाले आप ही सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति, पालन और नाश करनेवाले हैं ॥|१७५॥ और जगवके एकार्णव रूप ( जल्मय ) हो जानेपर, हे गोविन्द ! सबको शेषे त्वमेव गोविन्द चिन्त्यमानी मनीषिभिः ॥१६॥ मक्षणकर अन्तमें आप ही मनीषिजनोंद्वारा चिन्तित होते हुए जहमें शयन करते हैं॥ १६ ॥ हे प्रभो ! आपका जो परतत्त है उसे तो कोई भी नहीं जानता; अवतारेषु यद्रपं तदचेन्ति दिवोकसः ॥१७॥ अतः आपका जो रूप अवतारोंमें प्रकट होता हैं उसी- नमस्ते परमात्मात्मन्पुरुषात्मन्नमो5स्तु ते । त्वं कतों सबंभूतानां त्वंपाता लें विनाशकृत्‌ । सम्भक्षयित्वा सकल जगत्येकाणंवी ते । भवतो यत्परं तत्व॑ तन्न जानाति कश्वन । मे की देवगण पूजा करते हैं || १७॥ आप पखह्मकी त्वामाराध्य पर ब्रह्म याता मुक्ति मुपनक्षवः | हों, आगधणों- बरी सतत: मुक्त: होते है वासुदेवमनाराध्य को मोक्ष समवाप्स्यति ॥१८॥ मभछा वासुदेवकी आराधना किये बिना कौन




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